ध्यान है गहन यात्रा
ध्यान से भय होना तो स्वाभाविक है. यह होगा ही.
धर्माचार्य आचार्य रजनीश ओशो |
क्योंकि ध्यान का मतलब है- खोना, विलीन होना. ध्यान का अर्थ है- मिटना. ध्यान से तुम्हारी सारी परिचित भूमि विलीन हो जाएगी. तुम अपरिचित लोक में संचरण करोगे. तुम्हारे विचारों का जगत पीछे छूट जाएगा, जो तुम्हारा घर रहा सदियों से, जन्मों से. तुम अचानक बेघरबार हो जाओगे. विचारों की छाया हट जाएगी, छप्पर टूट जाएगा. तुम शून्य में उतरोगे, निर्विचार में डूबोगे. इसलिए खतरा है.
ध्यान में उतरना छोटी सी डोंगी लेकर सागर में उतरने जैसा है. दूसरा किनारा कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता है और यह किनारा छोड़ना पड़ रहा है. स्वाभाविक है, भय तो लगेगा ही. उत्ताल तरंगें हैं, हाथ में कोई नक्शा भी नहीं है और दूसरी तरफ पहुंचा है कोई, इसका पक्का भरोसा भी नहीं, क्योंकि लौट कर तो कोई आता नहीं वहां से! ध्यान बड़ी गहन यात्रा है इसलिए भय तो लगेगा ही. इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है. लेकिन भय से उठना जरूरी है, अन्यथा यात्रा शुरू ही नहीं हो पाएगी. अत: क्या करें, जिससे भय छूट जाए?
पहली बात, जो तुमने कभी नहीं की है, वह है भय को स्वीकार कर लेना. क्योंकि जितना तुम इसे अस्वीकार करोगे, उतने ही तुम भयभीत होने लगोगे. इसलिए भय को स्वीकार कर लेना है कि यह स्वाभाविक है.
मिटने जा रहे हैं, भय तो लगेगा. बड़े से बड़े युद्ध-क्षेत्र में जा रहे हैं, अत: भय तो लगेगा. स्वेच्छा से मृत्यु में उतर रहे हैं. अपने हाथ से सीढ़ियां लगा रहे हैं, तो भय तो लगेगा. अत: स्वाभाविक है, स्वीकार कर लेना है. कांपते हुए पैर से जाना है. कंपते हुए पैर से जाएंगे.
अगर तुमने स्वीकार कर लिया तो तुम पाओगे कि जैसे-जैसे तुम स्वीकार करने लगोगे, वैसे-वैसे भय तिरोहित होने लगेगा. अगर तुमने अस्वीकार किया और तुम उससे लड़ने लगे और उसे दबाने लगे, तो तुम ज्यादा से ज्यादा भय को अपनी छाती में भीतर दबा सकते हो. लेकिन जो भीतर दबा है, वह तुम्हें हमेशा कंपाएगा. और जब भी ध्यान समाधि के करीब पहुंचने लगेगा, जब भी ऐसा लगेगा कि अब मिटे, वह भय उभर कर खड़ा हो जाएगा. फूट पड़ेगा, विस्फोट हो जाएगा. वह तुम्हें भर देगा.
साभार: ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली
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