संन्यासी का दायित्व

Last Updated 29 Aug 2014 12:31:00 AM IST

संन्यास आश्रम पालन के अनेक विधि-विधान हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि संन्यासी को किसी स्त्री के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए.


धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद

उसे एकान्त में स्त्री से बातें करने तक की मनाही है. भगवान चैतन्य आदर्श संन्यासी थे. उनकी महिला भक्तों को उन्हें दूर से ही प्रणाम करने का आदेश था. यह स्त्री जाति के प्रति घृणाभाव का चिह्न नहीं था, अपितु संन्यासी पर लगाया गया प्रतिबन्ध था कि उसे स्त्रियों से निकट सम्पर्क में नहीं रहना चाहिए. मनुष्य को अपने अस्तित्व को शुद्ध बनाने के लिए जीवन की विशेष परिस्थिति में विधि-विधानों का पालन करना होता है.

संन्यासी का जीवन गृहस्थों तथा उन सबके लिए जो आध्यात्मिक उन्नति के वास्तविक जीवन को भूल चुके हैं, ज्ञान वितरित करने के लिए होता है. संन्यासी से आशा की जाती है कि वह अपनी जीविका के लिए द्वार-द्वार भिक्षाटन करे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भिक्षुक है. विनयशीलता भी आध्यात्मिकता में स्थित मनुष्य की एक योग्यता है. संन्यासी मात्र विनयशीलता वश द्वार-द्वार जाता है. वह भिक्षाटन के उद्देश्य से नहीं अपितु गृहस्थों को दर्शन देने तथा उनमें कृष्णभावनामृत जगाने के लिए घर-घर जाता है. यह संन्यासी का कर्त्तव्य है.

यदि वह वास्तव में उन्नत है और उसे गुरु का आदेश प्राप्त है, तो उसे फर्क तथा ज्ञान द्वारा कृष्णभावनामृत का उपदेश करना चाहिए और यदि वह इतना उन्नत नहीं है, तो उसे संन्यास आश्रम ग्रहण नहीं करना चाहिए. लेकिन यदि किसी ने पर्याप्त ज्ञान के बिना ही संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया है, तो उसे ज्ञान अनुशीलन के लिए प्रामाणिक गुरु से श्रवण में रत होना चाहिए. संन्यासी को निर्भीक होना चाहिए.

उसे सत्व संशुद्धि तथा ज्ञानयोग में स्थित होना चाहिए. दान गृहस्थों के लिए है. दान भी कई तरह का होता है- यथा सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में दिया गया दान. सतोगुण में दिये जाने वाले दान की संस्तुति शास्त्रों ने की है, लेकिन रजो तथा तमोगुण में दिये गये दान की कोई संस्तुति नहीं है, क्योंकि यह धन का अपव्यय मात्र है. संसार भर में कृष्णभावनामृत के प्रसार हेतु ही दान दिया जाना चाहिए. ऐसा दान सतोगुणी होता है.

(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)



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