सफलता के लिए सुधारें सोच

Last Updated 28 Aug 2014 12:19:43 AM IST

साधना से तात्पर्य है- साध लेना, सधा लेना. पशु प्रशिक्षक यही करते हैं.


धर्माचार्य पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

अनगढ़ एवं उच्छृंखल पशुओं को वे एक रीति-नीति सिखाते हैं, उनको अभ्यस्त बनाते और उस स्थिति तक पहुंचाते हैं, जिसमें उस असंस्कृत प्राणी को उपयोगी समझा जा सके, उसके बढ़े हुए स्तर का मूल्यांकन हो सके. पालने वाला अपने को लाभन्वित हुआ देख सके. सिखाने वाला भी अपने प्रयास की सार्थकता देखते हुए प्रसन्न हो सके.

भक्त भगवान को साधता है, तरह-तरह के उलाहने देता है. उसे भेंट चढ़ाकर फुसलाने का प्रयत्न करता है. यह दार्शनिक भूल मनुष्य को छिपा हुआ नास्तिक बना देती है. प्रकट नास्तिक वे हैं जो प्रत्यक्षवाद के आधार पर ईश्वर की सत्ता दृष्टिगोचर न होने पर उसकी मान्यता से इंकार कर देते हैं. छिपे नास्तिक उससे पक्षपात की, लम्बी-चौड़ी मनोकामनाओं की पूर्ति चाहते हैं. तथाकथित भक्त ही ऐसी आशा करते हैं. कई पाखंडी कुछ भी हस्तगत न होने पर प्रवंचना रचते हैं और अपनी सिद्धि-सफलता का बखान करते हैं.

आज का आस्तिकवाद  इसी विडम्बना में फंसकर लगभग नास्तिकवाद के स्तर पर जा पहुंचा है. सच्चे संतों व भक्तों काइतिहास देखने से पता चलता है कि पूजा-पाठ भले उनका न्यूनाधिक रहा है, पर जीवन साधना के क्षेत्र में उन्होंने परिपूर्ण जागरूकता बरती है. न आदर्श की अवज्ञा की न उपेक्षा बरती. भाव संवेदनाओं में श्रद्धा, विचार बुद्धि में प्रज्ञा और लोक व्यवहार में शालीन सद्भावना की निष्ठा अपनाकर कोई भी सच्चे अथरे में जीवन देवता का सच्चा साधक बन सकता है. उसका वरदान भी उसे हाथोहाथ मिलता चला जाता है.

अध्यात्म विज्ञान के साधकों को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन करना पड़ता है. सोचना होता है कि मानव जीवन की बहुमूल्य धरोहर का इस प्रकार उपभोग करना है जिसमें शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार दोनों चलता रहे, साथ ही आत्मिक अपूर्णता को पूरा करने का चरम लक्ष्य भी प्राप्त हो सके. यह सोच और साथ में नैष्ठिक पुरुषार्थ ही सफलता दिलाता है. इसे हर कोई प्राप्त कर सकता है, बस, आवश्यकता है भ्रांतियों से निकलने और यथार्थता अपनाने की. इसी दिशा में मान्यताओं को अग्रगामी बनाते हुए सोचना होगा कि जीवन साधना ही आध्यात्मिक स्वस्थता और बलिष्ठता है.

-गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार



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