शुद्धतर जीवन का आधार
जीव को ईश्वर अर्थात अपने शरीर का नियामक कहा गया है.
धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद |
यदि वह चाहे तो अपने शरीर को त्याग कर उच्चतर योनि में जा सकता है और चाहे तो निम्नयोनि में जा सकता है. इस विषय में उसे थोड़ी स्वतंत्रता प्राप्त है. शरीर में जो परिवर्तन होता है, वह उस पर निर्भर करता है.
मृत्यु के समय वह जैसी चेतना बनाये रखता है, वही उसे दूसरे शरीर तक ले जाती है. यदि वह कुत्ते या बिल्ली जैसी चेतना बनाता है, तो उसे कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है. यदि वह अपनी चेतना दैवी गुणों में स्थित करता है तो उसे देवता का स्वरूप प्राप्त होता है. और यदि वह कृष्णभावनामृत में होता है, तो वह आध्यात्मिक जगत में कृष्णलोक को जाता है, जहां उसका सानिध्य कृष्ण से होता है. यह दावा मिथ्या है कि इस शरीर के नाश होने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है.
आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण होता है और वर्तमान शरीर तथा वर्तमान कार्यकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं. कर्म के अनुसार भिन्न शरीर प्राप्त होता है और समय आने पर यह शरीर त्यागना होता है. कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर, जो अगले शरीर का बीज वहन करता है, अगले जीवन में दूसरा शरीर निर्माण करता है. एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण की प्रक्रिया तथा शरीर में रहते हुए संघर्ष करने को कषर्ति अर्थात जीवन संघर्ष कहते हैं.
दूसरे शब्दों में, यदि जीव अपनी चेतना को कुत्तों तथा बिल्लियों के गुणों जैसा बना देता है, तो उसे अगले जन्म में कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है, जिसका वह भोग करता है. चेतना मूलत: जल के समान विमल होती है, लेकिन यदि हम जल में रंग मिला देते हैं, तो उसका रंग बदल जाता है. इसी प्रकार से चेतना भी शुद्ध है, क्योंकि आत्मा शुद्ध है लेकिन भौतिक गुणों की संगति के अनुसार चेतना बदलती जाती है.
वास्तविक चेतना तो कृष्णभावनामृत है, अत: जब कोई कृष्णाभावनामृत में स्थित होता है, तो वह शुद्धतर जीवन बिताता है. लेकिन यदि उसकी चेतना किसी भौतिक प्रवृत्ति से मिश्रित हो जाती है, तो अगले जीवन में उसे वैसा ही शरीर मिलता है. यह आवश्यक नहीं है कि उसे पुन: मनुष्य शरीर प्राप्त हो. वह कुत्ता, बिल्ली, सूकर, देवता या चौरासी लाख योनियों में से कोई भी रूप प्राप्त कर सकता है.
(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)
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