ईश्वर के साथ एकाकार

Last Updated 13 Aug 2014 12:30:22 AM IST

नास्तिकता तब होती है जब तुम्हें मूल्यों में भी विश्वास नहीं होता है और परोक्ष में भी विश्वास नहीं होता.


धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर

जब एक नास्तिक गुरु के पास आता है तो क्या होता है? तुम स्वयं के स्वरूप का अनुभव करने लगते हो और पाते हो कि तुम स्वयं निराकार खोखले और खाली हो.

और यह गूढ़ निराकार रूप तुम्हारे अंदर और अधिक प्रत्यक्ष होता जाता है. गुरु इस गूढ़ को और भी वास्तविक बना देते हैं और जिसे तुम सत्य समझते थे, वह और अधिक असत्य प्रतीत होने लगता है.

संवेदनशीलता और सूक्ष्मता का उदय होता है. प्रेम का बोध एक भाव के रूप में न होकर अस्तित्व के आधार के रूप में प्रत्यक्ष होता है. निराकार स्वरूप सृष्टि के हर रूप में दृष्टिगोचर होता है और जीवन के रहस्य और भी गहरे होते जाते हैं तथा नास्तिकता टूटकर बिखर जाती है. तब यात्रा आरंभ होती है- इसकी चार अवस्थाएं होती हैं.

पहली है सारूप्य-साकार में निराकार को देखना, ईश्वर को हर रूप में देखना. प्राय: लोगों को साकार की अपेक्षा ईश्वर को निराकार रूप में देखना अधिक सुविधाजनक लगता है क्योंकि साकार रूप के साथ दूरी, द्वैतभाव, तिस्कारभाव और अन्य सीमितताएं जुड़ी हुई हैं.

यदि तुम इन रूपों में ईश्वर को नहीं देख पाते हो तो अपने जीवन के जागृत समय में भी दिव्यता से वंचित रहते हो. वे लोग जो ईश्वर को निराकार रूप में स्वीकार करते हैं, वे उनके प्रतीकों का उपयोग करते हैं.

शायद वे लोग प्रतीकों को साक्षात ईश्वर से भी अधिक प्रेम करते हैं. दूसरी अवस्था है सामीप्य-जिस स्वरूप को तुमने चुना है उससे पूर्ण सामीप्य अनुभव करना और निराकार तक पहुंचना. इस अवस्था में व्यक्ति तिरस्कार के भय और अन्य भयों से मुक्त हो जाता है. परंतु यह समय व स्थान से सीमाबद्ध है.

तीसरी अवस्था है सान्निध्य -ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव होना, जिसके द्वारा तुम समय व स्थान की सीमाओं से परे चले जाते हो. अंतिम अवस्था है सायुज्य-जब तुम पक्की तरह से ईश्वर में डूबे होते हो तब तुम्हें बोध होता है कि तुम ईश्वर के साथ एक हो. तब अपने प्रियतम में पूर्णत: समा जाते हो और सभी द्वन्द्व लुप्त हो जाते हैं.
संपादित अंश ‘सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता’ से साभार



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment