गुह्यज्ञान की पराकाष्ठा भक्तियोग
गुह्य या दिव्यज्ञान में आत्मा तथा शरीर के अंतर को जाना जाता है. समस्त गुह्यज्ञान के इस राजा (राजविद्या) की पराकाष्ठा है भक्तियोग.
धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद |
सामान्यत: लोगों को गुह्यज्ञान की शिक्षा नहीं मिलती. उन्हें बाह्य शिक्षा दी जाती है. जहां तक सामान्य शिक्षा का सम्बन्ध है मनुष्य राजनीति, समाजशास्त्र, भौतिकी, रसायनशास्त्र, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, इंजीनियरी आदि में व्यस्त रहते हैं. दुर्भाग्यवश कोई ऐसा विश्वविद्यालय या शैक्षिक संस्थान नहीं है, जहां आत्म-विद्या की शिक्षा दी जाती हो.
फिर भी आत्मा शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है. आत्मा के बिना शरीर महत्वहीन है. तो भी लोग आत्मा की चिन्ता न करके जीवन की शारीरिक आवश्यकताओं को अधिक महत्व प्रदान करते हैं. भगवद्गीता में द्वितीय अध्याय से ही आत्मा की महत्ता पर बल दिया गया है.
भगवान कहते हैं कि यह शरीर नर है और आत्मा अनर. यही ज्ञान का गुह्य अंश है- केवल यह ज्ञान लेना कि यह आत्मा शरीर से भिन्न है, यह निर्विकार, अविनाशी और नित्य है, इससे आत्मा के विषय में कोई सकारात्मक सूचना प्राप्त नहीं हो पाती. कभी-कभी लोगों को यह भ्रम रहता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है और जब शरीर नहीं रहता या मनुष्य को शरीर से मुक्ति मिल जाती है तो आत्मा शून्य में रहती है और निराकार बन जाती है. किन्तु यह वास्तविकता नहीं है. आत्मा सदैव सक्रिय है और वैकुंठलोक में इसके कार्यकलाप अध्यात्मज्ञान के गुह्यतम अंश हैं. अत: आत्मा के कार्यों को समस्त ज्ञान का राजा, समस्त ज्ञान का गुह्यतम अंश कहा गया है.
यह ज्ञान समस्त कार्यों का शुद्धतम रूप है. पद्मपुराण में मनुष्य के पापकर्मों का विश्लेषण है और दिखाया गया है कि ये पापों के फल हैं. उदाहरणार्थ, जब बीज बोया जाता है तो तुरन्त वृक्ष नहीं तैयार हो जाता, इसमें कुछ समय लगता है. एक छोटा अंकुर वृक्ष का रूप धारण करता है. तब इसमें फूल आते हैं, फल लगते हैं और तब व्यक्ति फूल तथा फल का उपभोग कर सकते हैं. इसी प्रकार जब कोई मनुष्य पापकर्म करता है, तो बीज की ही भांति इसके भी फल मिलने में समय लगता है.
(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)
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