गोविंद कृपा से परिपूर्ण जीवन
अर्जुन ने भगवान कृष्ण को गोविन्द कहकर सम्बोधित किया क्योंकि वे गौवों तथा इन्द्रियों की प्रसन्नता के विषय हैं.
धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद |
इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग कर अर्जुन संकेत करता है कि कृष्ण समझें कि अर्जुन की इन्द्रियां कैसे तृप्त होंगी! किन्तु गोविन्द हमारी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए नहीं हैं.
हां, यदि हम गोविन्द की इन्द्रियों को तुष्ट करने का प्रयास करते हैं तो हमारी इन्द्रियां स्वत: तुष्ट होती हैं. भौतिक दृष्टि से, प्रत्येक व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहता है और चाहता है कि ईश्वर उसके आज्ञापालक की तरह काम करें. किन्तु ईश्वर उनकी तृप्ति वहीं तक करते हैं जितने के वे पात्र होते हैं- उस हद तक नहीं जितना वे चाहते हैं.
किन्तु जब कोई इसके विपरीत मार्ग ग्रहण करता है अर्थात् जब वह अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की चिन्ता न करके गोविन्द की इन्द्रियों की तृप्ति करने का प्रयास करता है तो गोविन्द की कृपा से जीव की सारी इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं.
हर व्यक्ति अपने वैभव का प्रदर्शन मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र-परिजन युद्धभूमि में मारे जाएंगे और वह विजय के बाद उनके साथ अपने वैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा. भौतिक जीवन का यह सामान्य लेखा-जोखा है. किन्तु आध्यात्मिक जीवन इससे सर्वथा भिन्न होता है.
अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारना नहीं चाह रहा था और यदि उनको मारने की आवश्यकता हो तो अर्जुन की इच्छा थी कि कृष्ण स्वयं उनका वध करें. इस समय उसे पता नहीं है कि कृष्ण उन सबको युद्धभूमि में आने के पूर्व ही मार चुके हैं और अब उसे निमित्त मात्र बनना है. भगवान का असली भक्त होने के कारण अर्जुन अपने अत्याचारी बन्धु-बान्धवों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था किन्तु यह तो भगवान की योजना थी कि सबका वध हो.
भगवद्भक्त दुष्टों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहते किन्तु भगवान दुष्टों द्वारा भक्त का उत्पीड़न सहन नहीं कर पाते. भगवान किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से क्षमा कर सकते हैं किन्तु यदि कोई उनके भक्तों को हानि पहुंचाता है तो वे उसे क्षमा नहीं करते. इसीलिए भगवान दुराचारियों का वध करने के लिए उद्यत थे.
(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)
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