सत्येन्द्र नाथ बोस के सिद्धांतों को मिला न

Last Updated 04 Feb 2009 10:48:06 AM IST

सत्येन्द्र नाथ बोस के सिद्धांतों को मिला न


नयी दिल्ली : सत्येंद्र नाथ बोस भौतिकी के क्षेत्र में एक ऐसा नाम है जिन्हें खुद तो नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया लेकिन उनके सिद्धांतों पर काम करने वालों को यह सम्मान जरूर मिल गया। एक जनवरी 1894 को कोलकाता में जन्मे सत्येंद्र नाथ बोस बचपन से ही मेधावी थे जिनके बारे में यह मशहूर है कि उन्होंने डाक्टरेट नहीं की लेकिन फिर भी एक ऐसे सफल वैज्ञानिक बन गए जिसके काम को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए खुद अलबर्ट आइंस्टीन भी मैदान में कूद गए। आइंस्टीन ने बोस के काम को दुनियाभर में मान्यता ही नहीं दिलाई बल्कि उन्होंने खुद इस भारतीय वैज्ञानिक के साथ मिलकर काम भी किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1915 में एमएससी करने के बाद सत्येंद्र नाथ बोस ने अविष्कारों की दुनिया में कदम रखा। भौतिक विज्ञानी जयंत नार्लीकर ने अपनी पुस्तक द साइंटिफिक एर्जं में लिखा है कि 1922 में बोस द्वारा कणों की सांख्यिकीय पार्टिकल स्टैटिर्क्सं पर किया गया काम 20वीं शताब्दी की 10 शीर्ष उपलब्धियों में से एक था जिसे नोबेल पुरस्कार देने पर विचार किया जा सकता था।पार्टिकल स्टैटिर्क्सं ने फोटोर्न्सं "प्रकाश कणों" के व्यवहार से दुनियाभर के वैज्ञानिकों को अवगत कराया और इसने संसार में मौजूद सूक्ष्म व्यवस्था पर नए विचारों के द्वार खोल दिए। 1920 के शुरू में बोस ने क्वांटम मकेनिर्ज्मं को सफलतापूर्वक अंजाम दिया जिससे आइंस्टीन बहुत प्रभावित हुए। बाद में दोनों ने मिलकर बोस आइंस्टीन स्टैटिस्टिर्क्सं और बोस आइंस्टीन कंडेंसेर्टं जैसे सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। भौतिकी क्षेत्र में उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों का नाम बोसर्नं पड़ गया। इस भारतीय वैज्ञानिक को नोबेल पुरस्कार तो नहीं मिल पाया लेकिन उनके काम बोसर्नं बोस आइंस्टीन स्टैटिर्क्सं और बोस आइंस्टीन कंडेंसेर्टं की अवधारणाओं पर हुए अनुसंधान को एक से अधिक नोबेल पुरस्कार मिले। वर्ष 2001 में भी बोस आइंस्टीन कंडेंसेंर्टं सिद्धांत को बढ़ाने वाले वैज्ञानिकों को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। बोस सिर्फ विज्ञान के ही धुरंधर नहीं थे बल्कि उन्हें कई भाषाओं का भी ज्ञान था। वह संगीत यंत्र एसरर्जं भी बजाते थे जो वायलिन जैसा होता है। बोस ने 1924 में प्लैंक क्वांटम रेडिएशन र्लां पर एक शोध पत्र लिखा। इसे उन्होंने प्रकाशित कराने की कोशिश की लेकिन सफलता न मिलने पर उन्होंने अपना शोध पत्र जर्मनी में वैज्ञानिक आइंस्टीन के पास भेज दिया।आइंस्टीन बोस के इस शोध पत्र से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने खुद इसका अनुवाद जर्मन भाषा में किया और इसे बोस के नाम से प्रतिष्ठित पत्रिका जीटश्रिफ्ट फार फिजिर्कं में प्रकाशित करा दिया। इस उपलब्धि के बाद बोस को यूरोप से बुलावा आ गया और वहां उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधानों में दो साल गुजारे। यूरोप में बोस ने लुईस डे ब्रोगली मैरी क्यूरी और आइंस्टीन तथा कई अन्य जाने माने वैज्ञानिकों के साथ काम किया। सन 1926 में वह ढाका लौटे और ढाका विश्वविद्यालय में उन्होंने प्रोफेसर के रूप में पढ़ाना चाहा। चूंकि उनके पास डाक्टरेट की उपाधि नहीं थी इसलिए उन्हें प्रोफेसर की नौकरी देने से मना कर दिया गया। बाद में आइंस्टीन की सिफारिश पर ढाका विश्वविद्यालय ने उन्हें अपने यहां भौतिकी का प्रोफेसर बना दिया। भौतिकी के अतिरिक्त बायो केमिस्ट्री भूगर्भ विज्ञान जन्तु विज्ञान इंजीनियरिंग और अन्य विज्ञानों में भी बोस की गहरी रुचि थी। उन्होंने बांग्ला और अंग्रेजी साहित्य में भी काम किया और जर्मन भाषा में लिखे आइंस्टीन के शोध पत्रों को अंग्रेजी में अनुवादित किया। बोस 1944 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और 1958 में वह एफआरएस "फेलो आफ रायल सोसायटी" बन गए। चार फरवरी 1974 को 80 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।



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