अब टैक्स में कटौती की बारी

Last Updated 20 Jan 2013 12:45:47 AM IST

पिछले छह महीने में आर्थिक मोच्रे पर कई बड़े फैसले लिये गए हैं.


अब टैक्स में कटौती की बारी

खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश को इजाजत मिली तो काफी हंगामा हुआ, संसद में वोटिंग भी हुई. इस मसले पर सरकार गिरने तक की आशंका जताई जाने लगी थी. सरकार बची और उसी सरकार ने उससे भी बड़ा फैसला लिया है. ताजा फैसला है- डीजल की कीमत को बाजार पर छोड़ने का. प्लान के मुताबिक सरकारी तेल कंपनियां अगले 18 महीने तक प्रतिमाह डीजल की कीमत 50 पैसे प्रति लीटर की दर से बढ़ाएंगी.

18 महीने के बाद सरकारी तेल कंपनियों को डीजल बेचने पर कोई घाटा नहीं हो रहा होगा. इस फॉर्मूले की पहली किस्त हमें मिल चुकी है. सरकारी तेल कंपनियों ने डीजल के दाम बृहस्पतिवार को बढ़ा दिए. साथ ही यह भी फैसला हुआ है कि बड़ी मात्रा में जो डीजल खरीदते हैं, उन्हें इसके लिए बाजार भाव से कीमत चुकानी होगी. मतलब यह कि रेलवे को या फिर हाउसिंग सोसायटी में चलने वाले जेनरेटर्स में लगने वाले डीजल के लिए अब करीब 10 रुपए ज्यादा देने होंगे.

इतने बड़े फैसले का विरोध होना ही था और वह हो रहा है. यूपीए की सहयोगी डीएमके और सरकार को बाहर से समर्थन दे रही बहुजन समाज पार्टी ने इस फैसले को जनविरोधी बताया और सरकार से इसे वापस लेने को कहा है. बीजेपी और सीपीएम की तरफ से भी इसी तरह के बयान आए. मेरे खयाल से न सरकार इस फैसले को वापस लेगी और न ही पार्टियां बयानबाजी से आगे कुछ करेंगी. हां, एक खतरा मुझे दिख रहा है- जिस तरह रियायती एलपीजी सिलेंडर के कोटे को छह से बढ़ाकर नौ कर दिया गया है, उसी तरह आम चुनाव से कुछ पहले सरकारी तेल कंपनियों को चुपके से यह निर्देश दे दिया जाएगा कि डीजल की कीमत बढ़ाने का सिलसिला कुछ महीनों के लिए होल्ड पर डाल दिया जाए.

पेट्रोल और डीजल की कीमत को बाजार पर छोड़ने का फैसला 2010 में ही लिया गया था. पेट्रोल के मामले में कुछ हद तक इसे अमल में भी लाया गया. लेकिन डीजल के बारे में फैसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. तर्क दिया गया कि डीजल की कीमत बढ़ाने से महंगाई बढ़ती है और किसानों को नुकसान होता है.

इस तरह के खतरे तो अब भी हैं. फिर अभी यह फैसला क्यों लिया गया? मेरे खयाल से इसकी बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस के बड़े नेताओं को अब यह लगने लगा है कि अच्छे अर्थशास्त्र को अच्छी राजनीति का जरिया बनाया जा सकता है. कांग्रेस के नेताओं का यह अनुमान है कि अच्छे आर्थिक फैसलों को लागू करने से विकास की दर बढ़ेगी, लोगों की आमदनी बढ़ेगी और फिर लोग फिलहाल होने वाली दिक्कतों को भूल जाएंगे.

अब सवाल उठता है कि क्या डीजल की कीमत बढ़ाना अच्छा अर्थशास्त्र है? इसे समझने से पहले बाजार की प्रतिक्रिया देख लेते हैं. जिस दिन यह फैसला लिया गया, उसके दूसरे दिन यानी शुक्रवार को डॉलर के मुकाबले रुपया करीब सवा परसेंट मजबूत हुआ. इसका मतलब यह हुआ कि इस फैसले के बाद बाजार को लगा कि देश के व्यापार घाटे को, जो करीब-करीब खतरे की सीमा पार कर चुका था, वाकई काबू में लाया जा सकता है. रुपए की मजबूती से हमारी ढेर सारी दिक्कतें तो वैसे ही कम हो जाएंगी. अब जरा डीजल के अर्थशास्त्र को जान लेते हैं.

अभी तक डीजल पर भारी-भरकम सब्सिडी दी जाती रही है. सरकारी तेल कंपनियों की माने तो हर लीटर डीजल बेचने से उन्हें करीब 10 रुपए का घाटा होता है. इस सब्सिडी के पीछे दलील यह है कि यह किसानों के काम आता है. लेकिन आंकड़े कुछ और कहते हैं. देश में डीजल की सबसे ज्यादा खपत ट्रक परिवहन में होती है. कुल डीजल खपत का 37 परसेंट ट्रकों में जलता है. इंडस्ट्री 10 परसेंट डीजल का उपयोग करती है. पैसेंजर कार चलाने में 15 परसेंट डीजल की खपत होती है, जबकि खेती में महज 12 परसेंट की खपत होती है. ऐसे में किसानों के नाम पर महंगी गाड़ी रखने वालों को सब्सिडी देना कितना जायज है?

वैसे भी सब्सिडी का खर्च भी तो हमारी-आपकी जेब से ही जाता है. सब्सिडी बढ़ने से सरकार बाजार से कर्ज लेती है, जिसके ब्याज का बोझ हम पर पड़ता है. सरकार ज्यादा कर्ज लेती है तो ब्याज दर बढ़ती है, विकास की रफ्तार धीमी होती है; जिसका नुकसान भी हमें ही उठाना पड़ता है. यह भी देखा गया है कि किसी भी चीज की कीमत बढ़ती है तो उसकी मांग घटती है. अगर डीजल की कीमत बढ़ने से इसकी मांग में कमी आती है तो हमारा इंपोर्ट बिल कम होगा, व्यापार घाटा कम होगा और रुपए पर दबाव कम होगा. इसका फायदा भी हमें ही होगा. इसलिए विचार इस बात पर नहीं होना चाहिए कि बढ़ती कीमत को वापस कैसे किया जाए; बल्कि इस बात पर विचार हो कि डीजल की कीमत बढ़ने से किसान पर जो बोझ पड़ेगा, उसे कैसे कम किया जाए. मेरे खयाल से तुरंत कोई फॉमरूला निकाल कर किसान को इस नुकसान की भरपाई के बराबर कैश ट्रांसफर कर दिया जाता है तो उसका फायदा होगा.
इस पूरे फैसले में मुझे एक ही चीज खटकती है.

एलपीजी सिलेंडर की दो कीमतें करने से सरकार को कितना फायदा हो रहा है इसका पता नहीं, लेकिन कालाबाजारी करने वालों की चांदी हो गई है. ब्लैक मार्केट में ऐसे ही सिलेंडर धड़ल्ले से मिल रहे हैं. क्या सरकार इस पर रोक लगा पाएगी और क्या इससे सरकार को नुकसान नहीं हो रहा? उसी तरह डीजल के लिए दो कीमत लागू करने की बात हो रही है. खुदरा ग्राहक को सब्सिडी वाला डीजल मिलता रहेगा, जबकि बड़े खरीदार को बाजार भाव पर डीजल खरीदना होगा. क्या इससे कालाबाजारी नहीं बढ़ेगी? उससे होने वाले नुकसान की भरपाई कैसे होगी?

डीजल और पेट्रोल की कीमत को बाजार भाव से एलाइन करने की बात हो रही है. अच्छी बात है. लेकिन क्या अब समय नहीं आ गया है कि इस पर लगने वाले भारी-भरकम टैक्स में कटौती हो? डीजल और पेट्रोल पर फिलहाल 30 से 50 परसेंट तक टैक्स लगते हैं. क्या इसे तत्काल कम करने की जरूरत नहीं है? पेट्रोलियम कीमतों की सुधार प्रक्रिया में यह भी जरूरी है. हर कमाने वाला आयकर देता है, बाजार से टूथपेस्ट से लेकर दवा तक जो कुछ भी सामान खरीदता है, उस पर तमाम तरह के टैक्स और सर्विस टैक्स भी देता है. सरकार तेल कंपनियों की जान बचाना चाहती है, ठीक बात है. लेकिन इन्हें उसे भरपूर मुनाफे का जरिया नहीं बनाना चाहिए. पहले ही तरह-तरह के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष टैक्स दे रहे लोगों की जान की सांसत नहीं बनाना चाहिए. आने वाले समय में बात इस पर भी होगी. तेल कंपनियों का घाटा खत्म करने के बाद अपने हिस्से के टैक्स में कमी के लिए सरकार को तैयार रहना चाहिए.

उपेन्द्र राय


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