खेलों में कब तक चलेगा खेल
खिलाड़ियों के दिन आजकल अच्छे नहीं चल रहे हैं. सबसे पहले इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी ने इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन को निलंबित कर दिया है.
खेलों में कब तक चलेगा खेल |
इसका मतलब यह है कि जब तक यह निलंबन खत्म नहीं होता है अपने देश के खिलाड़ी तिरंगे के साथ ओलंपिक और पैरा-ओलंपिक में भाग नहीं ले पाएंगे.
आशंका जताई जा रही है कि ओलंपिक काउंसिल ऑफ एशिया और कॉमनवेल्थ गेम्स फेडरेशन भी इसी ढर्रे पर एशियन गेम्स और कॉमनवेल्थ गेम्स से भारतीय प्रतिनिधित्व को निलंबित कर सकते हैं. भारतीय खिलाड़ी अगर निलंबन खत्म होने से पहले ओलंपिक में हिस्सा लेना चाहें तो उन्हें सीधे अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के झंडे तले खेलना होगा. यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना ऐसे साल में हुई है जब भारत के खिलाड़ियों ने लंदन ओलंपिक में रिकॉर्ड छह मेडल जीते, जिनमें दो सिल्वर मेडल भी थे.
इसके बाद भारतीय एथलेटिक्स, तीरंदाजी और बॉक्सिंग एसोसिएशन पर भी सवाल उठाए गए. कुल मिलाकर हालत ऐसी बन गई है कि देश के मुक्केबाजों, तीरंदाजों और एथलीटों के लिए रियो ओलंपिक में जाना सपना साबित हो सकता है. कहां इस बात पर चर्चा होती कि अगले ओलंपिक में छह मेडल को 12 कैसे किया जाए, इसके उलट सारा ध्यान अब इस बात पर लगा है कि इन संस्थाओं का निलंबन कैसे खत्म किया जाए. इसके अलावा जगहंसाई तो हो ही रही है. और इस सबमें हमारे खिलाड़ियों की कोई गलती नहीं है.
एथलेटिक्स में हम हमेशा फिसड्डी रहे हैं. पीटी उषा और मिल्खा सिंह को छोड़ दिया जाए तो किसी और ने बड़े स्तर पर कुछ खास नहीं किया है. तीरंदाजी और मुक्केबाजी में देश में उभरते हुए कई सितारे हैं जिन्हें तराशने की जरूरत है. लेकिन क्रिकेट में तो धुरंधर भरे पड़े हैं. जिस टीम में सचिन तेंदुलकर, वीरेंदर सहवाग, गौतम गंभीर, विराट कोहली और महेंद्र सिंह धोनी हों, वह किसी से कैसे हार सकती है.
सचिन तेंदुलकर का शुमार दुनिया के महानतम खिलाड़ियों में होता है. वीरेंदर सहवाग से दुनिया के हर गेंदबाज खौफ खाते हैं. गौतम गंभीर और विराट कोहली ऐसे खिलाड़ी हैं जिनको दुनिया की किसी भी टीम में जगह मिल सकती है. और धोनी के बारे में क्या कहा जाए, उनकी कप्तानी में हमारी टीम ने सब कुछ हासिल किया. हम उनकी कप्तानी में वर्ल्ड कप जीत, टी-20 वर्ल्ड कप अपनी टीम के नाम कराया और उन्हीं की कप्तानी में हमारी टेस्ट रैंकिंग नंबर वन थी.
इतने धुरंधर खिलाड़ी तो टीम में हैं ही, साथ ही हमारे देश में क्रिकेट के लिए सवरेत्तम इंफ्रास्ट्रक्चर भी है. हमारे देश में क्रिकेट की दुनिया का एक बेहतरीन प्रोडक्ट आईपीएल है, जिससे दुनिया का हर खिलाड़ी जुड़ना चाहता है. देश में क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को भगवान माना जाता है. इतना सब कुछ होने के बावजूद लगातार फ्लॉप शो क्यों? पहले इंग्लैंड में हम 4-0 से सीरिज हारे. फिर ऑस्ट्रेलिया में हमारी टीम पूरी तरह से धराशायी हुई.
इस सबके बाद यह कहा गया कि विदेशी पिचों पर हमारी टीम बहुत करामात पहले भी नहीं कर पाती थी और इस बार भी यही हुआ. लेकिन अब तो अपने मैदान पर भी हमारे कदम लड़खड़ाने लगे हैं. जिन पिचों पर हमारे खिलाड़ी हमेशा अच्छा खेलते थे वहां हम हारने लगे हैं. फिर क्या बदल गया है? क्या हमारे खिलाड़ियों में क्षमता और दक्षता की कमी है जैसा कि महान बल्लेबाज राहुल द्रविड का इशारा है? या फिर जीतने की ललक खत्म हो गई है? या फिर कप्तान या कोच की स्ट्रेटजी में कोई कमी रह गई है?
मेरे खयाल में सभी तकरे में थोड़ी-थोड़ी सचाई है. हमारे खिलाड़ियों में टेस्ट क्रिकेट की काबिलियत वाकई कम है. उनके पास जो बहुत सारे ऑप्शन हैं उसमें टेस्ट क्रिकेट उनकी प्राथमिकता में काफी नीचे चला गया है. इसकी वजह से जीतने की ललक भी गायब हो गई है. और कप्तान व टीम के कोच इस ललक को फिर से जगाने में असफल रहे हैं. लेकिन इस सबके अलावा कुछ और भी है जो हमें बार-बार असफल बना रहा है.
हीरो को पूजना हमारी संस्कृति है. इसमें रेपुटेशन को प्रदर्शन पर तरजीह दी जाती है. रेपुटेशन वाले खिलाड़ी जब चल जाते हैं तो मैच का नक्शा ही बदल देते हैं. लेकिन ऐसा कभी-कभी होता है. लेकिन टीम में अगर ऐसे खिलाड़ियों का बोलबाला हो जो प्रदर्शन के बल पर टीम में जगह बनाते हैं तो ऐसी टीम के प्रदर्शन में निरंतरता बनी रहती है. टीम में जीतने की आदत कायम रहती है. लेकिन हीरो को पूजने वाले देश में हीरो को कौन बताए कि हर चीज की एक सेल्फ लाइफ होती है.
कहने का मतलब यह है कि खेल की दुनिया में क्षमता और दक्षता का पैमाना तेजी से बदलता रहता है. टेनिस की दुनिया में रोजर फेडरर शायद अब तक के सबसे बड़े नामों में से एक हैं. लेकिन उम्र के साथ उनकी जीतने की क्षमता काफी तेजी से घट रही है. फॉर्मूला वन रेसिंग में माइकल शूमाकर से बड़ा कोई नाम नहीं है. लेकिन अपनी आखिरी रेस वे पूरी भी नहीं कर पाए. इससे न तो शूमाकर की महानता कम होती है और न ही फेडरर की. अगर दुनिया के अब तक के 50 महानतम खिलाड़ियों की लिस्ट बनेगी तो शायद उसमें दोनों का नाम होगा. शायद सचिन तेंदुलकर भी उसमें शामिल होंगे. लेकिन सबका अपना युग होता है और मेरे खयाल से सचिन को भी इसे जल्दी ही पहचानना होगा.
सचिन की कहानी के जरिए मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि हमारे क्रिकेट बोर्ड को रेपुटेशन से आगे बढ़कर सोचना होगा. और अगर इसके लिए पूरी टीम को बदलने की जरूरत है तो वैसा ही हो. क्रिकेट हमारे लिए सिर्फ एक खेल ही नहीं है. यह हमारी भावना से जुड़ा है. यह देश को जोड़ता है. क्रिकेट ने हम सबमें विविजेता बनने की तमन्ना जगाई. क्रिकेट ने हमें आत्मसम्मान दिया. इस खेल में भी अगर हम अपने ही मैदानों पर हारने लगे तो समझिए कि यह हमारे आत्मसम्मान को धक्का है.
क्रिकेट और दूसरे खेलों को बचाने के लिए कुछ फैसले तत्काल लेने होंगे. खेल और खेल से जुड़ी संस्थाओं को खिलाड़ियों पर छोड़ दिया जाए. जरूरत पड़े तो कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए प्रोफेशनल्स की सहायता ली जा सकती है. लेकिन खिलाड़ियों का चुनाव, उनका प्रशिक्षण, मैदानों का रख-रखाव, कोच की नियुक्ति या विदाई- इस तरह के फैसले खिलाड़ी ही लें तो बेहतर होगा. ऐसा कैसे चलेगा कि चयन समिति, जिसमें अक्सर खिलाड़ी होते हैं, एक टीम का चुनाव करे और बोर्ड उसके खिलाफ वीटो कर दे. इस तरह का आरोप पूर्व सेलेक्टर और महान खिलाड़ी मोहिंदर अमरनाथ ने लगाया है. टीम के चयन में इस तरह का दखल होने लगे तो समझिए टीम का पतन बहुत दूर नहीं है. इससे पहले कि खिलाड़ी निरुत्साहित हो जाएं, दर्शकों की रुचि खत्म होने लगे, स्पांसर भागने लगें, रैंकिंग तेजी से गिरने लगे- खेल को निजी स्वार्थ से बचाना होगा.
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