आर्थिकी : गांव संभालेगा सेंसेक्स
दुनिया भर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कारण व्यापार शुल्क को लेकर जो भीषण रार मची है, उसने विश्व अर्थव्यवस्था की दिशा और मंजिल, दोनों को लेकर कई तरह के विमर्श और संकटों को सामने ला दिया है।
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ये सारी बातें भविष्य की दुश्वारियों से तो जुड़ी हैं ही, इनसे अतीत के अनुभवों को लेकर भी कई बातें साफ हुई हैं। बात अकेले भारत की करें तो हमारे यहां खास तौर पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर उदारीकरण के दौर में जिस तरह की नीतिगत समझ बननी चाहिए थी, वैसी बनी नहीं। इस कारण लंबे समय तक देश की अर्थव्यस्था की रीढ़ रहा यह क्षेत्र गंभीर उपेक्षाओं का शिकार हुआ। आज जब नौकरी-रोजगार की समस्या पर प्राथमिकता के साथ विचार करने की दरकार फिर से मजबूत हुई है, तो देश के ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी आर्थिकी को सुधारने की बात नये सिरे से रेखांकित हो रही है।
गौरतलब है कि 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत की 68.85 फीसद आबादी ग्रामीण अंचल में रहती है। अलबत्ता, शहरीकरण के बढ़े जोर के बावजूद नीति आयोग का अनुमान है कि 2045 में भी यह आंकड़ा 50 फीसद से ऊपर ही रहेगा। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2023-24 में बताया गया है कि ग्रामीण रोजगार मुख्य रूप से 53.5 फीसद स्वरोजगार और 25.6 फीसद आकस्मिक श्रम पर टिका है। ग्रामीण श्रमिकों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा (58.4%) कृषि में लगा हुआ है, जो आम तौर पर मौसमी रोजगार ही प्रदान करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में वेतनभोगी नौकरियां कुल कार्यबल का महज 12 फीसद है।
ऐसे में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देने का सबसे बड़ा आधार वहां के लोगों के आय विकल्पों में सुधार है। अच्छी बात यह है कि इस दिशा में देश काफी आगे बढ़ा है। नीति आयोग की रिपोर्ट के बाद केंद्र सरकार का 25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर निकलने का तथ्य तो संयुक्त राष्ट्र तक में गूंज चुका है। इस आंकड़े का सबसे चमकदार पक्ष बिहार और यूपी जैसे वे राज्य हैं, जहां की आबादी का बड़ा हिस्सा गांव-कस्बों में रहता है। ये वही राज्य हैं जो बीमारू के नाम पर लंबे दौर तक गांवों के पिछड़ेपन के कारण कोसे जाते रहे हैं। बीते दशक में गरीबी उन्मूलन इन्हीं सूबों में सर्वाधिक हुआ है।
देश के ग्रामीण अंचल में आर्थिक सुधार और जागरूकता की एक बड़ी शुरु आत 2014 में प्रधानमंत्री जन-धन योजना से हुई। इसके तहत अब तक देश में कुल 55.44 करोड़ से ज्यादा बैंक खाते खोले जा चुके हैं, जिनमें से 56 फीसद खाते महिलाओं के हैं। 21 मई, 2025 तक इन खातों में कुल जमा राशि 2.5 लाख करोड़ रु पये से अधिक हो चुकी है। वित्तीय समावेशन की इस बड़ी पहल का नतीजा है कि खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में बचत और बीमा को लेकर तो जागरूकता आई ही है, वे वित्तीय लाभ के दूसरे विकल्पों को भी गंभीरता से आजमाने लगे हैं।
इन विकल्पों में सबसे दिलचस्प है शेयर बाजार की ओर उन्मुखता। कोरोना महामारी से पहले डीमैट और म्यूचुअल फंड खातों की संख्या पांच करोड़ थी, जो अब लगभग 13 करोड़ पर पहुंच चुकी है। बेशक, इसमें बड़ी भागीदारी शहरी खाताधारकों की है, लेकिन माना जा रहा है कि बाजार का आकार इस ओर बढ़ रहे ग्रामीणों के रुझान को इंगित करता है।
आत्मनिर्भर भारत के लिए सक्षम और समृद्ध गांव जरूरी है। इस दिशा में अपने प्रयास को बढ़ाते हुए केंद्र सरकार ने फैसला किया है कि अब डाकघरों के जरिए भी म्यूचुअल फंड खरीदे जा सकेंगे। इसके लिए डाक विभाग और एसोसिएशन ऑफ म्यूचुअल फंड्स इन इंडिया (एएमएफआई) के बीच एक समझौता हुआ है। इसका उद्देश्य देश में वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देना है। यह समझौता तीन वर्ष के लिए किया गया है, जो 21 अगस्त, 2028 तक लागू रहेगा। आगे स्थिति की समीक्षा के साथ इसका नवीकरण होता रहेगा। इससे खास तौर पर देश के ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोग म्यूचुअल फंड के इकोसिस्टम से जुड़ सकेंगे।
समझौते के तहत डाक विभाग के कर्मचारी म्यूचुअल फंड वितरकों के रूप में कार्य करेंगे। सरकार का यह कदम अपनी रूपरेखा और संकल्पना में कितना सुविचारित और विस्तृत है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि पंचायतीराज मंत्रालय ने ग्रामीणों को सुरक्षित और लाभकारी निवेश के प्रति जागरूक करने के लिए सेबी के साथ अभियान की चरणवार रूपरेखा बनाई है। अभियान के तहत सबसे पहले छह राज्यों में 3,874 मास्टर ट्रेनर का एक नेटवर्क स्थापित किया जाएगा। पायलट राज्यों और मास्टर ट्रेनर नेटवर्क से शुरू होकर यह कार्यक्रम धीरे-धीरे सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों तक पहुंचाने की योजना है।
दिलचस्प है कि इस दौरान देश में स्टॉक और फंड मार्केट में हिस्सेदारी को लेकर नया रु झान सामने आया है। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की पांच वर्षो में डीमैट खाताधारकों की संख्या के अध्ययन के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2025 में सबसे ज्यादा 186 लाख इक्विटी निवेशक महाराष्ट्र में हैं, जबकि दूसरे स्थान पर है उत्तर प्रदेश, जहां 130 करोड़ ऐसे निवेशक हैं, जो इक्विटी में पैसा लगाते हैं। वित्तीय वर्ष 2020 की तुलना में 2025 में महाराष्ट्र ने 212.4 फीसद वृद्धि दर्ज कराई है, वहीं उत्तर प्रदेश ने 470.5 फीसद की छलांग लगाई है।
वैसे जिस सूबे ने अपने प्रदर्शन से सबको चौंकाया है, वह है बिहार। वहां वित्तीय वर्ष 2020 में महज सात लाख बाजार निवेशक थे पर अब यह आंकड़ा 52 लाख को पार कर गया है यानी 678.8 फीसद की उच्चतम वृद्धि। बिहार में इस बदलाव के नायक निस्संदेह नीतीश कुमार हैं। दिलचस्प है कि इस परिवर्तन का एक बड़ा पक्ष महिलाओं से जुड़ा है। आज की तारीख में बिहार में 6,389 जीविका बैंक सखियां ग्रामीणों को बैंक से जुड़े कार्य उनके द्वार पर ही उपलब्ध करा रही हैं। अब जब डाकघर के जरिए तमाम बचत और बीमा सुविधाओं के साथ म्यूचुअल फंड की बिक्री शुरू होगी तो निश्चित रूप से वित्तीय समावेशन का नया दौर शुरू होगा। यह दौर देश के आर्थिक स्वावलंबन को तो मजबूती देगा ही इससे ओडिशा, झारखंड और बिहार जैसे पिछड़े सूबों के ग्रामीण अंचल में भी समृद्धि और खुशहाली बढ़ेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद् हैं, लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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