कोविड-19 : सावधानी से ही हारेगा

Last Updated 11 Jun 2020 12:27:14 AM IST

लॉकडाउन से बाहर निकलने के दौर में जहां सावधानियों को अपनाने की जरूरत है वहां दहशत को दूर रखने की जरूरत भी है।


कोविड-19 : सावधानी से ही हारेगा

वैज्ञानिकों ने बार-बार समझाने की कोशिश की है कि सावधानियों को तो अपनाना चाहिए पर कोविड-19 को बड़ा हौवा बनाकर दहशत फैलने देने से समस्याएं बढ़ जाएंगी। कुछ वैज्ञानिकों ने विकल्प भी सुझाए हैं कि समुदाय आधारित, जन-केंद्रित, संतुलित नीतियां अपना कर आजीविका की रक्षा भी की जा सकती है और कोरोना पर नियंत्रण भी।
सेंटर फॉर इन्फैक्शियस डिजीज रिसर्च एंड पॉलिसी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय के निदेशक मिशेल टी आस्टरहोम ने कहा (वाशिंगटन पोस्ट, 21 मार्च, 2020-‘फेसिंग कोविड-19 रियलिटी-अ नेशनल लॉकडाउन  इज नो क्योर’-कोविड-19 का सामना करने की सच्चाई-देश को लॉकडाउन करना समाधान नहीं है)। हम सब कुछ बंद कर देंगे तो बेरोजगारी बढ़ेगी, डिप्रेशन आएगा, अर्थव्यवस्था लड़खड़ाएगी। वैकल्पिक समाधान यह है कि एक ओर संक्रमण का कम जोखिम रखने वाले व्यक्ति अपना कार्य करते रहें, व्यापार एवं औद्योगिक गतिविधियों को यथासंभव चलते रहने दिया जाए पर जो व्यक्ति संक्रमण की दृष्टि से ज्यादा जोखिम की स्थिति में हैं, वे सामाजिक दूरी बनाए रखने जैसी तमाम सावधानियां अपना कर अपनी रक्षा करें। जर्मनी के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल माइक्रोबॉयोलॉजी एंड हाईजीन के वैज्ञानिक डॉ. सुचरित भाकडी ने जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल को खुला पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने कोविड-19 के संक्रमण से निबटने के उपायों पर अति शीघ्र पुन: विचार करने की जरूरत पर जोर दिया है।

अपने पत्र में मौजूदा आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि किसी मृत व्यक्ति में कोविड-19 के वायरस की मात्र उपस्थिति के आधार पर इसे ही मौत का कारण मान लेना उचित नहीं है। इससे पहले वैश्विक संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि कोविड-19 के विरुद्ध जो कठोर कदम उठाए गए हैं, उनमें से कुछ बेहद असंगत, विवेकहीन और खतरनाक हैं। इनके कारण लाखों लोगों की अनुमानित आयु कम हो सकती है। इन कठोर कदमों का विश्व अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर हो रहा है, जो अनगिनत व्यक्तियों के जीवन पर बुरा असर डाल रहा है। स्वास्थ्य देखभाल पर इन कठोर उपायों के गहन प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं। पहले से गंभीर रोगों से त्रस्त मरीजों की देखभाल में कमी आ गई है या उन्हें उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। उनके पहले से तय ऑपरेशन टाल दिए गए हैं, ओपीडी बंद कर दी गई हैं। आठ वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में एक समीक्षा लेख ‘द 2019 नोवल कोरोना वायरस डीजीज (कोविड-19) पेंडमिक-अ रिव्यू ऑफ द करंट एविडेंस’ शीषर्क से लिखा है। इन वैज्ञानिकों में डॉ. प्रनब चैटर्जी (मुख्य लेखक), नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी वैज्ञानिक प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं।
लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा गया है। विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है। लॉकडाउन आधारित समाधान को अतिवादी सार्वजनिक स्वास्थ्य का कदम बताते हुए समीक्षा लेख ने कहा है कि इसके लाभ तो अभी अनिश्चित हैं पर इसके दीर्घकालीन नकारात्मक असर को कम नहीं आंकना चाहिए। ऐसे अतिवादी कदमों का सभी लोगों पर सामाजिक, मनौवैज्ञानिक और आर्थिक तनाव बढ़ाने वाला असर पड़ सकता है। समीक्षा लेख ने कहा है कि कोविड-19 का जो रिस्पांस विश्व स्तर पर सामने आया है, वह मुख्य रूप से प्रतिक्रिया के रूप में है और पहले की तैयारी विशेष नजर नहीं आती। अलर्ट करने व रिस्पांस व्यवस्था की कमी है। अलग रखने की पारदर्शी व्यवस्था की कमी है। इसके लिए सामुदायिक तैयारी की कमी है। ऐसी हालत में खतरनाक संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी को कमजोर ही माना जाएगा। वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम तरीके से बचाना है, तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो अपितु पहले से और आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। इन जाने-माने वैज्ञानिकों के बयानों का विशेष महत्त्व यह है कि कठोर उपायों के स्थान पर ये हमें संतुलित समाधान की राह दिखाते हैं। विशेषकर समुदाय आधारित और जन केंद्रित समाधानों के जो सुझाव हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं।
विश्व के कुछ स्थानों से जिस तरह कोविड-19 से होने वाली मौतों की सूचनाएं दिनोंदिन आ रही हैं, उनने घबराहट बढ़ा दी है। दूसरी ओर अब कई प्रतिष्ठित वैज्ञानिक ध्यान दिला रहे हैं कि कोविड-19 से होने वाली घबराहट उचित नहीं है। कोविड-19 के मरीजों में होने वाली मौतों का अनुमान जरूरत से ज्यादा दर्शाया जा रहा है। युनाईटेड नेशंस यूनिवर्सिटी इंटरनेशलन इंस्टीच्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ की प्रिंसिपल विजिटिंग फेलो नीना वाल्बे उन अनेक वैज्ञानिकों में से एक हैं, जिन्होंने इस संदर्भ में आवाज उठाई है। र्वल्ड इकनॉमिक फोरम की वेबसाइट पर 4 अप्रैल को लिखते हुए उन्होंने ध्यान दिलाया कि मौतों की दर या प्रतिशत का अनुमान निकालते हुए सूत्र में संक्रमण को दर्शाने वाले भाजक (डिनोमिनेटर) का अनुमान वास्तविक संख्या से कम लगाया गया है, जिसके कारण मौतों की दर ज्यादा दिखाई दे रही है। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. जेसन ओक ने ध्यान दिलाया है कि किसी मृतक में कोविड वायरस की मौजूदगी का मतलब यह नहीं है कि उसकी मौत का कारण या मुख्य कारण भी यही वायरस हो। डा. जेसन ने डॉ. कार्ल हेनेघन के साथ कहा है कि किसी रोगी के किसी वायरस के साथ मरने का अर्थ यह नहीं है कि वह जरूरी तौर पर इस वायरस के कारण ही मरा है। 
वरिष्ठ वैज्ञानिकों जैसे जर्मनी के सुचारित भाकड़ी (इंस्टीच्यूट फॉर मेडिकल माईक्रोबॉयलॉली एंड हाईजीन के प्रमुख) एवं अमेरिका के डॉ. जॉन लोनिडिस (स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर) के अनुसार इस सरल लेकिन महत्त्वपूर्ण अंतर को न समझने के कारण भी भ्रम पैदा हुआ है, जिसके कारण अनुमान भी प्रभावित हो रहे हैं। इस तरह बहुत से वैज्ञानिकों के विचार मिल रहे हैं कि वास्तव में दहशत की कोई आवश्यकता नहीं है। संतुलन बनाए रखते हुए, तथ्यों के आधार पर आगे बढ़ते हुए सरकार और समुदायों के सहयोग से ही स्थिति को संभाला जा सकता है।

भारत डोगरा


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