सामयिक : हम तो जीना ही भूल गए

Last Updated 06 Apr 2020 06:02:13 AM IST

उज्जैन के 67 वर्षीय युवा उद्योगपति पिछले तीन दशकों से देश के प्रतिष्ठित मेडीकल कॉलेजों में जाकर डाक्टरों को स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं।


सामयिक : हम तो जीना ही भूल गए

अरुण ऋषि नाम के यह सज्जन पढ़ाई के नाम पर खुद को बीएससी फेल बताते हैं, नाम के आगे स्वर्गीय लगाते हैं, स्वर्गीय लगाने का कारण पूछने पर बताते हैं कि जो भारत में रहता है वो भारतीय और जो स्वर्ग में रहता है वो स्वर्गीय। हमेशा व्यस्त और मस्त रहने वाले गुलाबी चेहरे के अरुण ऋषि का दावा है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षो में टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफी, शेविंग-क्रीम, साबुन, शैंपू, सौंदर्य प्रसाधन, कृत्रिम शीतल पेय, पान, गुटका, धूम्रपान तथा मदिरापान का सेवन नहीं किया। इस कारण वे पिछले इन वर्षो में एक दिन भी बीमार नहीं हुए।
कुछ समय पहले दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डाक्टरों को ‘सेल्फ मैनेजमेंट’ (अपने शरीर का प्रबंध) विषय पर व्याख्यान देते हुए ऋषि ने डाक्टरों से पूछा कि क्या वे स्वस्थ हैं? उत्तर में डाक्टरों की निगाहें नीचे हो गई तो उन्होंने कहा कि आप खुद ही स्वस्थ नहीं हैं, तो मरीजों को कैसे स्वस्थ कर पाते हैं? पहली बार मिलने पर ऋषि की बातें अटपटी लगती हैं पर जब उन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो दिमाग को झकझोर देती हैं। ऋषि प्रतिष्ठित संस्थाओं और बड़े औद्योगिक घरानों के अधिकारियों और कर्मचारियों के परिवारों को ‘सेल्फ मैनेजमेंट’ तथा ‘हेल्थ मैनेजमेंट विदाउट मेडिसिन’ पर व्याख्यान देने जाते हैं। ये सेवा अपने धर्मार्थ ट्रस्ट ‘आयुष्मान भव’ के झंडे तले करते हैं।

उनके अनुसार सुबह आठ बजे तक भारतवासी टूथब्रश, टूथपेस्ट, चाय, कॉफी, शेविंग-क्रीम, साबुन, शैंपू व अन्य सौंदर्य प्रसाधनों पर 900 करोड़ रुपये रोजाना खर्च कर देते हैं। सुबह आठ से रात को सोने तक लगभग 1100 करोड़ रुपये चाकलेट, शीतल पेय, पान, गुटका, सिगरेट, बीड़ी व मदिरा पर खर्च कर देते हैं। इस प्रकार हम भारतवासी रोजाना 2000 करोड़ रुपये के अप्राकृतिक साधनों द्वारा ईर की प्रकृति का नाश करते हैं, तो ईर भी हम भारतवासियों की प्रकृति का सत्यानाश कर देता है और फिर हम 3000 करोड़ प्रतिदिन अंग्रेजी दवाइयों और इलाज पर खर्च करने को विवश होते हैं। इस तरह प्रति दिन 5000 करोड़ रु पये फालतू चीजों में बर्बाद करने वाले इस देश पर कुल ऋण है लगभग 85 लाख करोड़ रु पये। इसमें देशी और विदेशी, दोनों ऋण शामिल हैं। यह बर्बादी खत्म हो जाए तो न सिर्फ  तीन वर्ष में सारा ऋण पट जाए, बल्कि लोगों का स्वास्थ्य भी इतना सुधर जाएगा कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च तेजी से घट जाएगा। 
साठ वर्ष पहले देश में अप्राकृतिक सौंदर्य प्रसाधनों का प्रचलन नगण्य था। लोग मिट्टी से हाथ धोते थे, घर के बने मंजन से दांत मांजते थे, तेल, घी या मलाई से मालिश करते थे, रीठे या आंवले से सिर धोते थे। चाय-काफी की जगह छाछ, लस्सी या दूध पीते थे। स्वस्थ रहते थे। प्राकृतिक वस्तुओं को छोड़कर बाजार की शक्तियों का शिकार बन कर हम अपने स्वास्थ्य और जेब, दोनों से हाथ धो रहे हैं। बाजार की शक्तियां इतनी चालाक हैं कि इन्होंने जनता के मन में पहले तो भ्रम पैदा किया कि प्राकृतिक सौंदर्य वस्तुएं इस्तेमाल करने वाले गंवार और पिछड़े हैं। यह भी प्रचार किया कि प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल आधुनिक जीवन में संभव नहीं है। किन्तु जब लगा कि इनके झूठे दावों की पोल खुलने लगी है और पश्चिमी देशों के लोग ही तमाम आधुनिकता के बावजूद प्राकृतिक जीवन की ओर दौड़ रहे हैं, तो बाजारी शक्तियां फिर दौड़ पड़ी प्राकृतिक वस्तुओं के उत्पादन को पेटेंट कराने में या उनके डिब्बाबंद पैकेट बनाकर  तड़क-भड़क के साथ बेचने में। 
सोचने की बात है कि हल्दी और नीम जैसे घर-घर में मिलने वाले पदार्थ को अमेरिका में पेटेंट क्यों कराया गया? इसलिए कि कल को चार आने की हल्दी टीवी पर विज्ञापन दिखाने के बाद 40 रु पये की बेची जा सके। पढ़े-लिखे मूर्ख फिर भी इनके बहकावे में आ जाते हैं। हम कैसे बैठकर खाना खाएं? क्या खाना खाएं? मल-मूत्र का विसर्जन कैसे करें? ऐसे छोटे-छोटे सवालों का वैज्ञानिक जवाब आज के पढ़े-लिखे अभिभावकों के पास भी नहीं है। खुद ही नहीं जानते तो बच्चों को क्या बताएंगे? जबकि ये सारी वैज्ञानिक जानकारियां हमारे शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। उन्हीं जानकारी को एकत्रित करके ऋषि जैसे लोग अत्यंत रोचक भाषा में देश भर में घूम-घूम कर लोगों को समझाने में जुटे हैं। उसे चाहे ‘सेल्फ मैनेजमेंट’ कह दें या ‘श्बेटर आर्ट ऑफ लिविंग’ कहें, कोई फर्क नहीं पड़ता।
ऐसी ही छोटी-सी बात है। हम रोज नंगे पैर मंदिर क्यों जाते थे? ताली बजा कर कीर्तन क्यों करते थे? वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि दिन में एक बार कुछ समय के लिए जोरदार ताली बजाने से बहुत से रोग दूर हो जाते हैं। देशी तरीके से उकड़ू बैठ कर खाने और मल विर्सजन करने से खाना अच्छा पचता है। कब्जियत नहीं होती। जोड़ों में दर्द नहीं होता जिसका शिकार आज लगभग हर शहरी बन चुका है। इसी तरह जो पुरु ष नीचे बैठ कर मूत्र विसर्जन करते हैं, उन्हें प्रोस्टेट कैंसर (पौरुष ग्रंथि) नहीं होता। कुछ देर तक पथरीली जमीन पर नंगे पैर चलने या पत्थर से पैर के तलुए रगड़ कर नहाने से स्वत: ही एक्यूप्रेशर का काम हो जाता है और आदमी स्वस्थ रहता है। नमाज की विभिन्न मुद्राओं में बैठना भी स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है।  ऋषि सरल और रोचक अंदाज से इसे समझाते हैं। ताली वादन और नमाज पर एक शेर भी सुनाते है-जिस दिन ताली और नमाज एक साथ होगी अता। बस वही होगा जन्नत का सही पता।।
आधुनिकता की अंधी दौड़ में भी जो लोग प्राकृतिक जीवन के जितना निकट रहने का प्रयास कर रहे हैं, वे तथाकथित आधुनिक लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा स्वस्थ-सुखी रहते हैं। लंबे समय तक जीते हैं। जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ज्ञान हमें विरासत में मिला है, उसकी तो हम परवाह नहीं करते। सोचते हैं कि हम तो सब जानते हैं, ये बेचारे पश्चिमी देश कुछ नहीं जानते इसलिए हमारे यहां आते हैं। पर वही पश्चिमी देश दरिद्र लोगों की तरह दौड़-दौड़ कर हमारी बौद्धिक संपदा को बटोरने में जुटे हैं। वे संपन्न होते जा रहे हैं और हम कर्ज में डूबते जा रहे हैं। आज कंगालतम राष्ट्रों में हम शामिल हो गए हैं। दुखद तो यह है कि हमारे पतन और लूट की जो गति आजादी के बाद बढ़ी है, वैसी पिछले एक हजार साल में भी नहीं थी। कोरोना के आतंक के इन दिनों में ऐसे तमाम सवालों पर गंभीर चिंतन करना होगा ताकि कोरोना के बाद का सवेरा भारत के पुनर्जागरण का सवेरा बने। हम सबकी यही कोशिश होनी चाहिए।

विनीत नारायण


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