कांग्रेस का सफर : सोनिया से सोनिया तक

Last Updated 12 Aug 2019 12:12:15 AM IST

ढाई महीने की मशक्कत के बाद आखिरकार कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक बार फिर से देश की सबसे वृद्ध राजनीतिक पार्टी ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का अध्यक्ष बना दिया गया है।


कांग्रेस का सफर : सोनिया से सोनिया तक

इस दफे फर्क सिर्फ  यह  कि वे  ‘अंतरिम  अध्यक्ष’ बनाई गई हैं। बमुश्किल दो वर्ष के अंतराल के बाद उन्होंने कांग्रेस की कमान को सम्हाला है। इस बीच की अवधि में उनके पुत्र  राहुल गांधी पूर्णकालिक अध्यक्ष रहे, लेकिन   17वीं लोक सभा चुनाव में पार्टी को मिली करारी  पराजय  से  आहत  होकर  उन्होंने  अपने  पद  से   इस्तीफा दे दिया।
उन्होंने इस हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वयं की लीडरशिप पर ली। वरना आमतौर पर शिखर नेता अपनी जिम्मेदारी छुटभैयों पर डाल देता है  और खुद पिछली गली से निकल भागता है। आलोचकों का मानना है कि राहुल गांधी को   अध्यक्ष पद से पलायन नहीं करना चाहिए था। राजनीति में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इसमें कठोर जिगर की जरूरत है। यानी निर्ममता, कठोरता, धूर्तता, पाखंड और नैतिकता में रंगा   बाना पहनकर सियासत करनी चाहिए, जिसमें  फिलहाल राहुल गांधी फिसड्डी दिखाई दे रहे हैं। खैर। इस समय सवाल अंतरिम अध्यक्ष  के चुनाव का है। राहुल गांधी के त्यागपत्र के बाद  दोनों ही प्रकार की उम्मीदें थीं: एक; कांग्रेस  वंशवाद  से मुक्त होकर किसी स्वतंत्र नेता के हाथों में पार्टी की बागडोर सौपेंगी जोकि राष्ट्रीय  स्तर की शख्सियत  होगी  और  इसका   पुनर्गठन  करेगी, सोचा यह भी गया था कि पुरानी पीढ़ी के नेता को अध्यक्ष बनाकर उसके अधीन  दो-तीन  युवा पीढ़ी के कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाए जा सकते हैं। दो: यह भी उम्मीद थी कि कांग्रेस पर से नेहरू-गांधी परिवार अपना शिंकजा आसानी   से नहीं छोड़ेगा, अपने किसी विश्वासपात्र को ही  अध्यक्ष बनवाएगा; राहुल के विश्वासपात्र ही नई टीम के सदस्य होंगे, जिन्हें अवसर के अनुसार   बदला जा सकता है।

चर्चा यह भी रही है कि राहुल गांधी की जगह  उनकी बहन प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बनाया जा सकता है। कार्यकारिणी की  मैराथन मीटिंग से  छन -छनकर जो खबरें आई हैं, उनसे यही लगता है कि इसके लिए   प्रियंका बिल्कुल तैयार नहीं थीं। राहुल ने भी  अनुरोध को फिर से अस्वीकार कर दिया। सोनिया को अंतरिम अध्यक्ष  बनाए जाने के पीछे तर्क दिया गया है कि नये स्थायी अध्यक्ष के चुनाव के कुछ औपचारिकताएं हैं। उनको  पूरा करने के बाद ही स्थायी अध्यक्ष का चुनाव किया जा सकता है। संक्षेप में, इसमें समय लगेगा।  चुनाव प्रक्रिया का पालन करना होगा। है भी यह सही।  मगर पिछली  सदी के अंतिम दशक  में  कांग्रेस  के  तत्कालीन  अध्यक्ष  स्वर्गीय सीताराम  केसरी  को  हठात-बलात पद से हटा दिया गया था। कार्यसमिति  के कतिपय  वरिष्ठ सदस्यों ने कांग्रेस  मुख्यालय  पर धावा  बोला  और  दफ्तर  में ही उनसे इस्तीफा ले लिया गया। उस समय किस प्रकार की औपचारिकता का पालन किया गया, विवाद का विषय है। यहां सवाल अंतरिम या अध्यक्ष का नहीं है। मुख्य सवाल है ‘किसे अध्यक्ष बनाया जाए? ढाई-तीन महीनों की कवायद के बाद कांग्रेस जहां से चली थी, उसी बिंदु पर धंस गई है। सोनिया जी से शिकायत नहीं हैं।
उन्होंने  तो कांग्रेस के ‘संकट  मोचक’ की भूमिका निभाई है; देवेगौड़ा-गुजराल सरकार के दौरान भी सोनिया गांधी ने कांग्रेस को संकट-काल से उभारा था। सत्ता-वनवास से गुजर रही अपनी पार्टी को 2004 में सत्ता-पुनर्वापसी के सुख से नवाजा था। मगर, 2014  में  भाजपा के हाथों अभूतपूर्व पराजय के बाद कांग्रेस को ऐसे नेतृत्व की दरकार रही है, जो देश के नये आख्यान को समझता हो। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए  सरकार ने भारत की राजनीति का सम्पूर्ण चरित्र ही बदलकर रख दिया है। उसने देश के समक्ष  ऐसा नैरेटिव रखा, जिसका सामना  करने को कांग्रेस का नेतृत्व तैयार नहीं था; कांग्रेस समझ नहीं सकी और  पुराने ढर्रे पर ही चलती रही है। इसका  खमियाजा  2019  के चुनावों में भी उठाना पड़ा। हालांकि तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी ने मझधार में फंसे कांग्रेसी  जहाज को  सत्ता  बंदरगाह  तक  पहुंचाने  की कठोर तपस्या की, मगर कांग्रेस की खामियों के कारण वह फलीभूत नहीं हो  सकी। राहुल को उम्मीद थी कि दोयम दर्जे के कतिपय वरिष्ठ नेता भी उनके साथ अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार कर पद छोड़ेंगे।
नेहरूयुग का एक ‘मिनी कामराज प्लान’ की पुनरावृति होगी। लेकिन राहुल को गहरी निराशा हुई अपनी ही सेना से। पर सबसे निराशा इस बात से है कि राहुल की सख्त ताकीद के बावजूद घूम-फिर कर सूई नेहरूवंश के पुराने वारिस पर ही थम गई, जो सेहत के लिए अच्छा नहीं। क्या चिदम्बरम, गुलाम नबी, वोरा, प्रियंका, आनंद  शर्मा जैसे नेताओं को एक भी शख्स ऐसा नहीं मिला जो  इस वंश से बाहर का हो! दरअसल, कांग्रेसियों की मानसिकता ‘वंशपरजीवी राजनीति’ की हो गई है। इस वंश के बगैर भी कांग्रेस का कोई  अस्तित्व  हो सकता  है, ये नेता सोचना भी नहीं चाहते या इनमें इसका साहस व क्षमता नहीं रह गई है। इस रुग्ण मानसिकता ने केवल कांग्रेस को ही क्षति नहीं पहुंचाई है बल्कि उन राष्ट्रीय  मूल्यों को भी आघात पहुंचाया है, जिसके बल पर आधुनिक भारतीय राष्ट्र राज्य का निर्माण किया गया था। सोनिया गांधी की डगर पहले से   अधिक दुष्कर है; अब उनका सामना मोदी-शाह  सियासत से है, जिसमें लक्ष्यों की उपलब्धि के  लिए सभी सीमाएं बेसबब बन गई हैं। दूसरी तरफ  कांग्रेसियों के राग-रग में सत्ता-सुख समा जाने से वे सड़कों पर उतरने से घबरा रहे हैं। ऐसे में दिल्ली से लेकर अदना  गांव  तक कांग्रेस के ढांचे को पुनर्जीवित करना हिमालय-आरोहण  के समान है। सोनिया जी को  दरबारियों  से  मुक्त हो कर नई टीम खड़ी करनी पड़ेगी। विचारधारा को एजेंडे पर लाना होगा।
विचारधारा के शिविर लगाने होंगे। उत्तर-पूर्व से लेकर दिल्ली तक पदयात्राओं का आयोजन करना चाहिए। विचारधारा को लेकर शिविर लगाए जाने चाहिए। स्थानीयता से लेकर वैश्विकता को ध्यान में  रख कर दूरगामी रणनीति  बनानी होगी। केवल ‘कोमल हिंदुत्व’ से काम चलने वाला नहीं है। नये भारत के लिए नई गाथाएं तैयार की जानी चाहिए। इसके लिए बेहद  कल्पनाशील, दूरदृष्टि संपन्न और संकल्पबद्ध  नेतृत्व की जरूरत रहेगी। क्या इस नाजुक-चुनौतियों  से  भरे काल  में सोनिया अपने  जीवन  के  अंतिम चरण में ऐसी भूमिका निभा सकेंगी  जिसे कांग्रेस और देश के इतिहास में स्वर्ण  अध्याय के रूप में जोड़ा जा सके?

रामशरण जोशी


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