करगिल युद्ध : जब परास्त हुई प्रतिकूलताएं
वर्ष 1998 में भारत और पाकिस्तान, दोनों परमाणु ताकत से संपन्न देश बन गए थे। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का सोचना था कि अब दोनों देश परस्पर युद्ध करते हैं, तो यह निरा पागलपन होगा।
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और वे लाहौर बस यात्रा करके पाकिस्तान के साथ शांति वार्ता करने पहुंच गए। नवाज शरीफ ने उनका शानदार स्वागत किया, लेकिन जनरल परवेज मुशर्रफ ने उनसे मिलने तक से इनकार कर दिया। वह उस समय करगिल युद्ध की योजना बनाने में मशगूल थे। नॉर्थर्न इंफेंट्री द्वारा ऑपरेशन बदर के रूप में लड़े गए युद्ध में आतंकियों से भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कराई गई। यह पीठ में छूरा भोंकने से ज्यादा कुछ न था। अप्रैल, 1999 में पाकिस्तानी सैनिकों भारत के सीमावर्त्ती 120 किलोमीटर से ज्यादा क्षेत्र में घुसपैठ का प्रयास किया।
कठिन पहाड़ी और बेहद बर्फानी इलाका होने के कारण भारतीय सेना के लिए कड़ी चुनौती दरपेश थी। जनरल वेद प्रकाश मलिक याद करते हुए बताते हैं कि कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भारतीय सेना को जटिल पेचिदगियों का सामना था। सेना के दस्तों की तैनाती खासी दूर-दूर थी। वह बताते हैं कि चोरबतला-शंग्रुती-25 किमी., प्वाइंट 5299-बिमबेट-09 किमी., बिमबेट एलओसी-मारपोला-9.5 किमी. तथा मारपोला-कौबल गली-3.6 किमी. जैसी दूरियां सैनिकों की तैनाती में थीं। इसके अलावा, बेहद बर्फ होने से समूचा इलाका सुनसान और वीराना सा हो गया था। दोनों पक्षों को अपने बहुत से मोचरे से अपने सैनिक हटाने पड़े थे।
पाकिस्तान की योजना थी कि वह अपनी छह बटालियनों (कुच आतंकवादियों के साथ), जिसमें एनएलआई स्थानीय दस्ते शामिल थे, की मदद से 1998 की उन सर्दियों में भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ को अंजाम दे। श्रीनगर-द्रास-करगिल-लेह हाइवे को जद में ले लेने वाली उन ऊंचाइयों पर काबिज हो, जहां भारतीय सैनिकों की कम तैनाती थी। उसे लगता था कि इससे यह समूचा इलाका उसकी सेना के सीधे निशाने पर आ जाएगा। उसके सैनिक भारतीय रक्षा सैनिकों को सीधे निशाने पर ले सकेंगे। भारतीय सेना को गफलत में डालने के लिए बड़ी चतुराई से प्रयास किया। भारतीय सेना को जताने की कोशिश की कि घुसपैठ करने वाले आतंकी थे। घुसपैठ 1998 की सर्दियों में आरंभ हो गई थी। परवेज मुर्शरफ ने अपनी पुस्तक ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ में यह दावा किया है कि जनवरी, 1999 में यह मंसूबा पूरा करने का फैसला किया गया और अप्रैल, 1999 के आखिर तक इसे अंजाम दे दिया जाना था। लाइन ऑफ कंट्रोल के साथ-साथ करीब 120 किमी. क्षेत्र के तैनातीविहीन हिस्से पर सौ नई चौकियां स्थापित करके प्रत्येक पर 10-20 सैनिकों की तैनाती कर दी जानी थी। मुख्य घुसपैठ मशकोह क्षेत्र (करीबन 400 वर्ग किमी.), द्रास क्षेत्र (करीबन 100 वर्ग किमी.) और श्योक क्षेत्र (करीबन 50 वर्ग किमी.) में की गई। यह क्षेत्रवार ब्योरा जनरल मुशर्रफ के हवाले से उद्धृत है। जहां तक भारतीय पक्ष का आकलन है तो पाकिस्तानी सैनिक 160 किमी. के सीमाई क्षेत्र में 8 से 10 किमी. तक भीतर घुस आए थे।
सामरिक रूप से संवेदनशील इलाके में तकरीबन डेढ़ ब्रिगेड की घुसपैठ करा दी गई थी। पाकिस्तानियों की घुसपैठ सबसे पहले तीन मई, 1999 को दो चरवाहों को पता चली। उनकी जानकारी के आधार पर भारतीय सेना ने इलाके में गश्त की तो भारतीय सेना की टुकड़ी पर भारी गोलीबारी कर दी गई। काफी संख्या में भारतीय सैनिक शहीद हो गए। हेलीकॉप्टर से भी इलाके में घुसैपठिए होने की पुष्टि हुई क्योंकि बर्फ पर उनकी आवाजाही के निशान देखे गए। 121 इंफेंट्री ब्रिगेड तथा 31 इंफेंट्री डिवीजन ने टोह लेने के लिए हमलों की झड़ी लगा दी। गोलीबारी में भारी नुकसान हुआ, लेकिन शत्रु के खुफिया संपर्क तक पहुंचने में आसानी हो गई। थोड़ी देर से वायु सेना को 25 मई, 1999 को तैनाती सौंपी गई। वायु सेना वहां शत्रु सेना की तैयारी को देख हैरत में पड़ गई। एक मिग-21 विमान को निशाना बनाकर शत्रु सेना ने मार गिराया। एक मिग-23 विमान के इंजन ने आग पकड़ ली। दो एमआई-17 हेलिकॉप्टर भी निशाना बन गए। वायु सेना ने तत्काल 1973 के योम किप्पुर युद्ध के सबक का स्मरण करते हुए जवाब दिया।
इस युद्ध में कंधे के ऊंचाई से छोड़ी गई सैम मिसाइलों ने तबाही मचा दी थी, लेकिन इस्रइली लड़ाकू विमानों ने इनका मुंहतोड़ जवाब दिया। उनने प्रिसिजन गाइडेड मुनिशंस का सटीकता से इस्तेमाल करते हुए मध्यम और उच्च ऊंचाई से हमले किए। अब भारतीय वायु सेना ने शत्रुओं का पूरी सटीकता से जवाब देना आरंभ कर दिया। 8 माउंटेन डिवीजन को मैथेडिकल और पूरी तैयारी के साथ हमले करने में जुटा दिया गया। और उसने अपने काम पूरी शिद्दत से अंजाम दिया। भारत की इंच दर इंच भूमि से पाकिस्तानियों को खदेड़ दिया गया। भारत के युवा सैन्य अधिकारियों ने अपने बहादुरी भरे कृत्य से पाकिस्तान मंसूबे की कमर तोड़ दी। कैप्टन विक्रम बतरा, मनोज पांडेय और लेफ्टिनेंट विजयंत थापर की जांबाज दिलेरी के सामने किसी भी शत्रु को पस्त होना ही था। उनकी बहादुरी का शत्रु के पास कोई जवाब नहीं था। प्रत्येक बटालियन हमले में 100-200 गन्स का इस्तेमाल किया गया। आगे बढ़कर किए गए हमलों ने भारत की जीत में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
एक अमेरिकी संवाददाता तो भारत के शौर्य प्रदर्शन से भौंचक रह गया। हैरत में पड़े इस संवाददाता ने कहा कि भारतीय सेना वह सेना है, जो वास्तव में जुझारू लड़ाई लड़ती है। सबसे अच्छी प्रतिक्रिया जो एक पाकिस्तानी एनएलआई टुकड़ी के जवान की थी,‘वे भारतीय जुनूनी थे-वे चींटियों की तरह पहाड़ी ढलानों पर चढ़ते चले गए-हम गोली चलाना जारी रखे हुए थे-हमारी उंगलियां थकने लगी थीं-लेकिन उन्हें थमना नहीं था सो नहीं थमे-वे ऊपर की ओर चढ़ते रहे, चढ़ना जारी रखे रहे।’ कहना होगा कि इससे अच्छी श्रद्धांजलि भारत के उन 537 जांबाजों को हो ही नहीं सकती, जिन्होंने देश की सीमा पर अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। सीमा पर इस युद्ध में घायल होने वाले 1367 सैनिकों के लिए इनसे सुंदर शब्द हो ही नहीं सकते। पीठ में छुरा घोंपने वालों को इन वीर भारतीय सैनिकों ने पूरी दिलेरी से जवाब देकर इस युद्ध को भारतीय सैन्य इतिहास का सुनहरा अध्याय बना दिया है। भारत की यह जीत याद की जाएगी इन जांबाजों की जबर्दस्त जांबाजी के लिए। परिस्थितियां और युद्ध का मैदान किसी भी सूरत भारतीय सेना के अनुकूल नहीं था। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी यह जंग जीता गया। कह सकते हैं, कि जीवट के आगे तमाम प्रतिकूलताएं परास्त हुई।
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