परत-दर-परत : धर्म सचमुच व्यक्तिगत मामला है?

Last Updated 24 Sep 2017 01:33:23 AM IST

सेकुलर लोगों द्वारा अक्सर कहा जाता है कि धर्म व्यक्तिगत मामला है. कुछ विद्वानों ने इस बात को इस तरह कहा है कि धर्म व्यक्ति और ईश्वर के बीच का मामला है.




धर्म सचमुच व्यक्तिगत मामला है?

निश्चय ही कोई व्यक्ति किस धर्म को मानता है, यह उसके अपने अंत:करण पर निर्भर है. लेकिन दुनिया में कितने लोग स्वेच्छा से धर्म को चुनते हैं? व्यक्ति धर्म को चुने, इसके पहले ही धर्म उसे चुन लेता है. नि:संदेह कुछ लोग अपनी पसंद के धर्म में जाने के लिए धर्म परिवर्तन करते हैं, लेकिन किसी भी युग में ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है, पूरे धार्मिंक जमात का दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं. बाकी लोग धर्म का चुनाव नहीं करते. जिस धर्म में जन्मते हैं, उसी में जीवन बिताते हैं, और उनका अंतिम संस्कार भी उसी धर्म के विधि-विधान के अनुसार होता है.

वस्तुत: धर्म की समस्या ही यह है कि वह तर्क नहीं, आस्था का विषय है. जो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास करना चाहता है, वह यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि ईश्वर है भी या नहीं. इसका कारण है. प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर पर ईश्वर की खोज करने निकले तो हो सकता है कि इसी में उसका आधे से ज्यादा जीवन व्यतीत हो जाए. यह सही है कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में कभी न कभी जिज्ञासा पैदा होती है कि सृष्टि क्या है, क्यों है, क्या इसका कोई निर्माता है और नहीं है तो यह अस्तित्व में कैसे आई, इसका संचालन कौन करता है, जीवन का उद्देश्य क्या है, या इसका कोई उद्देश्य है भी या नहीं. लेकिन ये कठिन प्रश्न हैं, और निश्चित नहीं है कि इनका उत्तर है भी या नहीं.

दूसरी तरफ, जीवन में इतना आकषर्ण होता है, उसके तात्कालिक दबाव इतने गुरु तर होते हैं कि जीवन को तब तक के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता, जब तक इन जिज्ञासाओं का समाधान नहीं हो जाता. यहीं धर्म शक्तिशाली सिद्ध होता है. हमारी विचारशीलता पर हावी हो जाता है. धर्म व्यक्तिगत मामला होता तो जितने व्यक्ति हैं, उतने ही धर्म होते. इस बात की व्याख्या हमारे समय के सबसे बड़े धार्मिंक महात्मा गांधी ने बहुत अच्छी तरह की है.

उन्होंने अनेक बार ईश्वर के गुणों का वर्णन किया, लेकिन यह भी स्वीकार किया है कि उन्होंने ईश्वर के दर्शन नहीं किए हैं. पहले वे कहते थे कि ईश्वर सत्य है, परंतु बाद में कहने ही नहीं लगे, बल्कि इस पर जोर देने लगे कि सत्य ही ईश्वर है. गांधी के अनुसार, सत्य क्या है?  जो कुछ है, वह सत्य है. इसका अर्थ निकलता है कि पूरी सृष्टि ही सत्य है. दूसरी ओर, धर्म वह है, जो हमें ईश्वर से मिलाता है. लेकिन ईश्वर की तरफ जाने का कोई एक रास्ता नहीं है. इसलिए धर्म भी अनेक होंगे. इस पहेली को हल करते हुए, लेकिन गांधी जी ने इस पर भी जोर दिया कि सभी धर्मो में एक बुनियादी एकता है. यह एकता कहां से पैदा है? जाहिर है, सभी मनुष्यों की बाह्य और आंतरिक बनावट में भी एक मूलभूत एकता है.

फिर विभिन्न धार्मिंक समुदायों में संघर्ष क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए हमारा साक्षात्कार इस सचाई से होता है कि धर्म सिर्फ आत्मिक या आध्यात्मिक मामला नहीं है, इसके भौतिक आधार भी होते हैं. किसी एक धर्म को मानने वाले लोगों की जीवन पद्धति में बहुत कुछ साझा होता है. इस तरह धर्म व्यक्ति की पहचान बन जाता है और इस पहचान के साथ घर-परिवार, संपत्ति, जमीन, नागरिकता, शासन आदि जुड़ जाते हैं. जब दो धर्मो के लोगों के भौतिक स्वार्थ टकराते हैं, तब जो लड़ाई शुरू होती है, उसका आधार धर्म को ही बनाया जाता है, क्योंकि इससे लोगों को लामबंद करने में सुविधा होती है. दोनों ओर के गरीब और वंचित लोग भी इस लड़ाई में शामिल हो जाते हैं.

चूंकि धर्म का संबंध तर्क से कम, आस्था से ज्यादा होता है, इसलिए जड़ता या स्थिरता सभी धर्मो का प्रधान तत्व बन जाती है. कोई किताब, कोई आचार्य, कोई पीठ तय करता है कि हमारा धर्म क्या है यानी हमें किस तरह रहना चाहिए. लेकिन सभी धर्मो की सामान्य खूबी यह है कि इस मामले में अंतिम रेखा पहले ही खींच दी जाती है. जो भी धार्मिंक सत्ता है-पैगंबर, किताब या शास्त्र-वह आखिरी होती है. नया पैगंबर नहीं आ सकता, नई किताब नहीं लिखी जा सकती, नये शास्त्रों की रचना नहीं हो सकती. लेकिन रूढ़िबद्ध जीवन मनुष्य के स्वभाव में नहीं है. वह रूढ़ियों का पालन करता है, तो रूढ़ियों से विद्रोह भी. इसी प्रक्रिया में नये धर्मो या नये संप्रदायों का जन्म होता है. ईसा मसीह जन्म से यहूदी थे. गौतम बुद्ध जन्म से हिंदू थे.

दयानंद सरस्वती आर्यसमाजी परिवार में पैदा नहीं हुए थे. लेकिन इन सभी ने एक नये धर्म की धारा बहाई. धर्म के उत्तर में वैज्ञानिक चिंतन और जीवन-पद्धति का विकास हुआ है. लेकिन इनमें अभी भी वह शक्ति नहीं आ पाई है कि वे सामूहिक जीवन का आधार बन सकें. बहुत कम लोग अपनी धार्मिंक पहचान से मुक्त हो पाते हैं. सिगमंड फ्रायड ने स्वीकार किया है कि वे अपनी यहूदी जड़ों को मिटा नहीं पाए. गांधी जी बार-बार कहते थे कि मैं जितना हिंदू हूं, उतना ही मुसलमान और उतना ही ईसाई हूं. लेकिन अंत तक रहे वे हिंदू ही. हालांकि यह भी सच है कि मानवता का भविष्य धर्म से नहीं, विज्ञान से तय होगा, क्योंकि धर्म में मेधा का सहज और उन्मुक्त प्रवाह नहीं दिखाई देता, जो विज्ञान की मूल विशेषता है.

राजकिशोर


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