मीडिया : साक्ष्य तो आने दीजिए
गौरी लंकेश पत्रकार थीं. उनकी नृशंस और सरेआम हत्या हर हाल में निंदनीय है. हमारे जैसे कलम घसीट तक को ऐसी खबर ब्रेक होने के बाद एक डर-सा व्याप गया.
मीडिया : साक्ष्य तो आने दीजिए |
फिर, जैसे-जैसे गौरी का परिचय प्रसारित होता गया तैसे-तैसे लगता गया कि वे भी पंसारे, कलबुर्गी और दाभोलकर के पैटर्न पर मारी गई. कइयों ने ऐसा कहा भी. विचार विचार से लड़े, यहां तक तो ठीक लेकिन असहमति के लिए हत्या कर दी जाए,यह कौन-सा जनतंत्र है?
लेकिन अफसोस! गौरी की हत्या पर जिस तरह की राजनीतिक चरचाएं उठीं, उनसे ‘शोक’ का भाव न जाने क्यों गायब हो गया! मीडिया में शोक भी ‘पैकेज’ बनकर आता है. मीडिया यही करता है. वह बुरे से बुरे क्षण को सजा डालता है. अपने तुरंता मिजाज के चलते पकने से पहले ही खिचड़ी उतार कर परोसने लगता है. टीआरपी का तर्क नतीजे की ओर उसे सरपट दौड़ाने लगता है. हर हत्या एक बेहद नृशंस कर्म होती है. हर हत्या अपनी जटिलताएं लिए होती है. हत्यारे और हत्या के बीच सीधे सरल समीकरण नहीं होते. और जब हत्या मीडिया की बड़ी और लाइव खबर बन जाती है, और राजनीतिक विवाद का विषय बन जाती है, तो हत्या और हत्यारे के बीच के संबंध और गझिन तथा अधिक टेढ़े हो जाते हैं. ‘गौरी की हत्या उनकी आलोचनाओं के कारण की गई’ ऐसी मान्यता एक बाल सुलभ ‘मान्यता’ ही कही जा सकती है. लेकिन दूसरी ओर, हत्या के ठोस कारणों का निदान करना, हेतुओं को स्पष्ट करना, और अकाट्य प्रमाण जुटाना ऐसे जटिल काम हैं, जिनके लिए अपने प्रदेशों की पुलिस पूरी तरह सक्षम नहीं है. जब मुंबई ब्लास्ट के अपराधियों को सजा दिलाने में चौबीस साल लग जाते हैं, तब किस हत्या के केस में किस ‘हत्यारे’ को तुरंत पकड़ा जा सकता है, और पकड़ भी लें तो अचूक तरीके से टाइम के भीतर सजा कैसे दिलाई जा सकती है? पुलिस और कानून की ऐसी जटिल सचाइयों को हम सब जानते हैं, और तब भी हम एक न्याय का इंतजार करते हैं.
ऐसा नहीं है कि शोक-मग से अधिक राजनीति-मग दिखने वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी, सिविल सोसाइटी वाले या राजनेता इन जटिलताओं को नहीं जानते. फिर भी उन्होंने वही किया जिससे उनको मीडिया में ‘पहले मारे सो मीर’ होने का सुख मिलता, लेकिन इससे अधिक कुछ न मिला. जब-जब किसी ने कहा कि इस हत्या के पीछे उन दक्षिणपंथी हिंदू ताकतों का हाथ है, जिनकी आलोचना गौरी करती रहीं, तब-तब कुछ समझदार एंकरों, रिटार्यड पुलिस अधिकारियों और राजनीतिक प्रवक्ताओं ने कहा कि जांच होने दें. जांच से पहले ही नतीजे पर पहुंचना ठीक नहीं.
लेकिन कौन मानता है? जांच से पहले ही नतीजे पर दौड़ कर पहुंच जाना अब तक मीडिया की स्वभाव था, अब वह पक्ष-विपक्ष के प्रवक्ताओं और नेताओं का स्वभाव बन चला है. हम मान लेते हैं कि हत्यारे वे ही हो सकते हैं, जिनको गौरी की लेखनी से खतरा था, जिसकी वजह से वे गौरी से घृणा करते होंगे. शायद वही गौरी को सोशल मीडिया में धमकियां भेज रहे थे और हत्या के बाद खुशियां मना रहे थे. बिना किसी ठोस प्रमाण के ऐसे तत्वों को संदिग्ध मानना तुरंता तसल्ली तो दे सकता है, लेकिन यही असली हत्यारे को बचने का अवसर भी दे सकता है. तब ऐसी जल्दबाजी किसलिए? मीडिया के कुछ हिस्सों में ‘हत्यारा कौन’ के जवाब में सांकेतिक तरीके से ‘हत्यारे’ बताने की होड़ किसलिए? जिसकी हत्या हुई वह तो लौट कर आ नहीं सकती. तब जल्दबाजी क्यों? क्या यह बेहतर न हो कि जांच को होने दें और फिर उसके सही या गलत होने की समीक्षा करें. शोक में ‘धैर्य’ ही संबल होता है जबकि घृणा प्रतिघृणा पैदा करती है. हत्यारे के मन में गौरी के प्रति गहरी घिन रही होगी. वह विचार से कमजोर होगा और गौरी की निर्भीकता के आगे से हार गया होगा तभी उसने गोली का सहारा लिया. इससे गौरी का शरीर मरा, विचार नहीं मरा. न मर सकता है क्योंकि वह सिर्फ गौरी का विचार नहीं है. इस तरह हत्यारा नहीं जानता है कि वह विचारों की दुर्जेयता से लड़ रहा है, और देह को मार रहा है.
लेकिन लगभग ऐसा ही तुरंता घृणा संचालित व्यवहार उनका रहा जो मीडिया में आकर बिना किसी तटस्थ जांच के, बिना किसी ठोस प्रमाण के, अपने पूर्व निश्चित शत्रु का नाम लेकर उसे तुरत कठघरे में खड़ा करने लगे. इसलिए महाराज! अपने विरोधी से उस तरह न लड़िए जिस तरह से वह आपको लड़ाना चाहता है. लड़ना है तो अपनी शर्तों और अपने अखाड़े में लड़िए और धीरज के साथ लड़िए.
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