माकपा : बहुमतवादियों का मकड़जाल!

Last Updated 09 Sep 2017 04:01:27 AM IST

माकपा के अंदर 1996 के बाद से ही जब मतदान और बहुमत के जरिये संयुक्त मोर्चा के सर्वसम्मत चयन के बावजूद ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया गया, प्रकाश करात के नेतृत्व में बहुमतवादियों ने एक अनोखी परिपाटी चला दी है कि देश और पार्टी के सबसे महत्त्वपूर्ण-से-महत्त्वपूर्ण विषयों पर मतदान के जरिये निर्णय लिये जाएं.


माकपा : बहुमतवादियों का मकड़जाल!

मजे की बात यह है कि पार्टी की काम करने की इस पद्धति को ‘जनवादी केंद्रीयतावाद’ कह कर महिमामंडित किया जाता है. सीपीआई (एम) के अंदर के लोग इसी बात पर खुश हो लेते हैं कि वे पार्टी के संचालन की कम्युनिस्टों के बीच सर्व-स्वीकृत लेनिनवादी लाइन का पूरी निष्ठा से पालन कर रहे हैं. और अपनी इस सिद्धांत-निष्ठा के जोश में वे न सिर्फ पार्टी के लगातार पतन की सच्चाई से आंख मूंदे रहते हैं, बल्कि खुद अपनी पार्टी के संविधान को भी पूरी तरह से भूल जा रहे हैं.

माकपा के संविधान के जिस परिच्छेद में ‘जनवादी केंद्रीयतावाद के सिद्धांतों’ के बारे में विस्तार से कहा गया है, उसमें बहुत साफ शब्दों में यह भी कहा गया है कि ‘जब किसी पार्टी कमेटी में गंभीर मतभेद पैदा हो जाए तो सहमति पर पहुंचने की हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए. इसमे विफल होने पर निर्णय को टाल दिया जाना चाहिए ताकि आगे और बहस के जरिये मतभेदों को दूर किया जा सके, बशर्ते पार्टी और जन आंदोलन की जरूरतों को देखते हुए तत्काल फैसला करना आवश्यक न हो.’

अपने ही संविधान की इस धारा की भावना के विपरीत, कोरे संख्या बल से सारी चीजों को तय करने की इन बहुमतवादियों की जकड़बंदी ने आज माकपा को किस प्रकार हंसी का पात्र बना कर छोड़ दिया है, यह पिछले सभी अनुभवों के बाद एक बार फिर सीताराम येचुरी को राज्य सभा से वापस बुला लेने की घटना में भी देखा गया.

कहना न होगा, इस प्रकार माकपा के बहुमतवादियों ने येचुरी को राज्य सभा से विदा होने के लिए मजबूर करके एक बार फिर पार्टी के अंदर अपनी एक महान जीत अर्जित कर ली. यद्यपि उनके अंदर ही बहुत सारे लोगों के मन में आज भी यह सवाल बना रह गया है कि यदि कांग्रेस पार्टी ने येचुरी के बजाय सीपीआई (एम) के बहुमतवादियों में से किसी नेता या नेत्री को अपना समर्थन देने की पेशकश की होती, तब भी क्या माकपा अपनी उस विचारधारात्मक शुद्धता पर इसी भाव के साथ डटी रहती! सब जानते हैं जब यूपीए-1 को समर्थन देने का फैसला किया गया था, इन्हीं बहुमतवादियों को कांग्रेस को समर्थन देने में कोई सैद्धांतिक संकोच नहीं हुआ था. इसी ने अपनी थोथी हेकड़ी के प्रदर्शन के चक्कर में बेबात ही उस सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. तभी से प्रकाश करात और उनके साथ के बहुमतवादियों अंध कांग्रेस-विरोध की जो गांठ बांध ली, उसने जैसे पूरे वामपंथ के ही हाथ-पांव बांध कर रख दिए. इस एक नीति ने माकपा को सिर्फ  एक बयानबाजी की पार्टी बन कर छोड़ दिया है.

सांप्रदायिकता के खिलाफ जनता की अधिकतम एकता की उसकी सारी बातें यथार्थ की जमीन पर खोखली हो जाती है, क्योंकि हमारी राजनीतिक सच्चाई यह है कि कांग्रेस को अलग करके सांप्रदायिकता के खिलाफ किसी भी व्यापक लड़ाई की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. माकपा का बहुमतवादी समूह कांग्रेस से दूरी रखने की अपनी नीति पर तो अटल है, लेकिन वह सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ जनता के व्यापक एकजुट आंदोलन के अपने ही संकल्प को बड़ी आसानी से भूल जाता है. एक महीना पहले ही माकपा के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ में, जिसके संपादक प्रकाश करात हैं, बिहार में नीतीश के विश्वासघात के प्रसंग में निहायत अप्रासंगिक तरीके से कांग्रेस को घसीट कर यह फैसला सुनाया गया था कि भाजपा के खिलाफ ऐसा कोई भी संयुक्त प्रतिरोध सफल नहीं हो सकता है, जिसमें कांग्रेस शामिल होगा. भाजपा को हराने के लिये जरूरी है कि हिन्दुत्व की सांप्रदायिकता के साथ ही नव-उदारवाद से भी लड़ा जाए. हमारा इन ‘सिद्धांतकारों’ से एक छोटा सा सवाल है कि नव-उदारवाद से उनका तात्पर्य क्या है? क्या यह इक्कीसवी सदी के पूंजीवाद से भिन्न कोई दूसरा अर्थ रखता है? तब क्या फासीवाद-विरोधी किसी भी संयुक्त मोर्चे की यह पूर्व-शर्त होगी कि उसे पूंजीवाद-विरोधी भी होना पड़ेगा? क्या मार्क्‍सवादी सिद्धांतकारों ने फासीवाद को पूंजीवाद के दायरे में भी एक अलग स्थान पर नहीं रखा था?

स्टालिन ने जब कहा कि जनतंत्र के जिस झंडे को पूंजीवाद ने फेंक दिया है, उसे उठा कर चलने का दायित्व कम्युनिस्टों का है, तब क्या वे पूंजीवाद की ताकतों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की पैरवी भी नहीं कर रहे थे? करात ने ही चंद महीनों पहले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में आरएसएस के बारे में अब तक के सारे अध्ययनों को धता बताते हुए अनायास ही लिख दिया कि वे भाजपा को फासीवादी नहीं कहना चाहेंगे. इस पर भारी विवाद हुआ, लेकिन किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय वे चुप्पी साधे रहे.

वास्तविकता यह है कि कोई भी दल सत्ता में हो, परिस्थिति अंतर्विरोधों से रहित नहीं रह सकती. उसकी दरारों में हमेशा बदलाव के लक्षणों को पाया जा सकता है. संसदीय राजनीति में जनवादी ताकतों की कार्यनीति की भूमिका यह है कि उन दरारों का लाभ कैसे क्रमश: प्रगतिशील शक्तियों के पक्ष में उठाया जाए न कि प्रतिक्रियावादियों को उनका लाभ उठाने की अनुमति दी जाए. कार्यनीति कभी भी ‘शुद्धतावाद’ की बहादुरी से तय नहीं की जाती है.

सीपीएम में बहुमतवादी अपनी गुटबाजी के स्वार्थ में थोथी वीरता के प्रदर्शन वाला कोरा डान क्विगजोटिक खेल खेल रहे हैं. नव-उदारवाद से लड़ाई का जो अर्थ पश्चिम के विकसित साम्राज्यवादी देशों में है, भारत की तरह के विकासशील देश में नहीं है. जनतंत्र पर तंज करता हुआ इकबाल का यह मशहूर शेर है-‘जम्हूरियत इक तर्ज-ए-हुकूमत है कि जिसमें बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते.’ सीपीएम के बहुमतवादी करात के नेतृत्व में पार्टी के अंदर कुछ इसी प्रकार के जनतंत्र को साधने में लगे हुए हैं. इस उपक्रम में इन्होंने राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई से वामपंथ को हमेशा के लिए अलग कर इसकी लगाम भाजपा के सुपुर्द करने की महान उपलब्धि हासिल की है.

अरुण माहेश्वरी
लेखक


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