हॉकी : बेवजह पांच कोचों की बलि

Last Updated 06 Sep 2017 05:24:08 AM IST

भारतीय हॉकी टीम 2008 के बीजिंग ओलंपिक में क्वालिफाई नहीं कर पाई थी, उस समय उसकी रैंकिंग 11वीं थी. भारत अब एफआईएच रैंकिंग में छठे नंबर पर काबिज है.


हॉकी : बेवजह पांच कोचों की बलि

इसका मतलब है कि भारतीय टीम ने नौ सालों में रैंकिंग में पांच स्थान का सुधार किया है. पर हम इस मुकाम पर पांच विदेशी कोचों की बलि चढ़ाकर पहुंचे हैं. बलि चढ़ने वाले कोचों में नवीनतम नाम रोलैंट ओल्टमेंस का जुड़ा है. अभी कुछ समय पहले ही उनके कामकाज से खुश होकर उनके मुख्य कोच के कार्यकाल को बढ़ाकर 2020 के टोक्यो ओलंपिक तक कर दिया था.

पिछले कुछ दिनों में ऐसा क्या हो गया कि ओल्टमेंस को एकाएक पद से हटाने को मजबूर होना पड़ा. कई बार तो लगता है कि इन हटाने वालों को भी नहीं पता होता है कि वह यह कदम क्यों उठाने जा रहे हैं? ओल्टमेंस को हटाना भी कुछ ऐसा ही फैसला लगता है. ओल्टमेंस की पीड़ा को उनकी पहली प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है. उन्होंने कहा कि हम क्या कह सकते हैं, वे जब चाहते हैं बर्खास्त कर देते हैं. यह कहा जा रहा है कि पिछले दिनों हुई र्वल्ड हॉकी लीग सेमीफाइनल्स में मलयेशिया और कनाडा से हारने की वजह माना जा रहा है. पर जब टीम मेजबान होने के नाते फाइनल खेलने की पात्रता पहले ही हासिल कर चुकी हो तो किसी कोच का इस तरह जाना अच्छा कदम नहीं लगता.

कई बार लगता है कि हॉकी के आकाओं को इस बात की परवाह ही नहीं है कि इस तरह का कदम उठाने से सिर पर आए किसी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में प्रदर्शन पर क्या असर पड़ेगा. अगर ऐसा होता तो 2016 के रियो ओलंपिक से पहले जुलाई 2015 में डच कोच पॉल वान ऐस को पद से बर्खास्त नहीं किया जाता. डच कोच खिलाड़ियों को अच्छे प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करने क जबर्दस्त क्षमता रखते थे. उन्हें हॉकी के कारणों से नहीं हटाया गया. बल्कि हॉकी इंडिया अध्यक्ष से सार्वजनिक बहस हो जाने की वजह से बेआबरू होकर बाहर जाना पड़ा.

यह सही है कि माइकल नोब्स के कोच रहने के दौरान जरूर भारतीय टीम आशातीत परिणाम हासिल नहीं कर सकी. नोब्स के कार्यकाल के दौरान भारतीय टीम एशियाई चैंपियंस ट्रॉफी जीतने के साथ 2012 के लंदन ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर लिया. लेकिन लंदन ओलंपिक में आखिरी स्थान पर रहने ने उनकी टीम से जुदा रहने की राह तय हो गई. भारतीय टीम ने पिछले आठ सालों में सबसे ज्यादा प्रगति की है तो वह ऑस्ट्रेलियाई कोच टैरी वाल्श का अक्टूबर 2013 से शुरू हुआ एक साल का कार्यकाल है. उन्होंने टीम की तैयारी में भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई हॉकी को मिलाया. इस दौरान भारत ने कॉमनवेल्थ गेम्स में रजत पदक जीता. इंचियोन एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर रियो ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर लिया.

पर जब टीम को टैरी वाल्श की सबसे ज्यादा जरूरत थी, उन्हें वेतन विवाद में फंसाकर और कई फैसलों में नौकरशाही के अडं़गों ने जाने के लिए मजबूर कर दिया. इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि पिछले आठ-नौ सालों से विदेशी कोचों का इस्तेमाल करने के बाद भी भारतीय टीम के प्रदर्शन में एकरूपता नहीं लाई जा सकी है. अगस्त माह में यूरोपीय दौरे पर भारत ने नीदरलैंड्स जैसी दिग्गज टीम को हराया और र्वल्ड लीग सेमीफाइनल्स में मलयेशिया और कनाडा जैसी टीम से हार गई. पर इसके लिए हॉकी इंडिया की नीति भी किसी हद तक जिम्मेदार है. उसने किसी भी कोच को खुलकर काम करने का मौका ही नहीं दिया.

असल में जवाबदेही सिर्फ कोचों पर लागू करने से बात बनने वाली नहीं है. अगर खराब प्रदर्शन के लिए जितना कोच जिम्मेदार है, उतना ही उसे बनाने वाली फेडरेशन के प्रमुख पदाधिकारी जिम्मेदार हैं. यह कहा जा रहा है कि ओल्टमेंस बेहतर परिणाम के लिए दीर्घकालीन नीति लेकर चल रहे थे. लेकिन हॉकी इंडिया से जुड़े लोग चाहते थे कि टीम जल्द अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छे परिणाम देती नजर आए. पर इस बात को तो किसी भी कोच की नियुक्ति से पहले ही बताया जा सकता है कि हम क्या चाहते हैं.

लेकिन टीम के सही दिशा में बढ़ते दिखने के दौरान कोच ओल्टमेंस की बलि चढ़ा देने की तुक समझ में नहीं आई है. भारत को इस साल 11 से 22 अक्टूबर को एशिया कप में और एक से 10 दिसम्बर तक र्वल्ड हॉकी लीग फाइनल में खेलना है. इस समय कोच को हटाना सही फैसला नजर नहीं आता है. भारत को अगले साल कॉमनवेल्थ गेम्स और एशियाई खेलों में भर भाग लेना है, इसलिए कोच की जल्द से जल्द व्यवस्था करने की जरूरत है. टीम के पास समय बर्बाद करने के लिए जरा भी नहीं है.

मनोज चतुर्वेदी
वरिष्ठ लेखक


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