हाइड्रोजन बम : उलझ पड़ीं महाशक्तियां

Last Updated 05 Sep 2017 02:14:37 AM IST

एशिया-प्रशांत क्षेत्र, कुछ विस्थापनों के साथ लम्बे समय से वैश्विक हलचल का एपीसेंटर बना हुआ है. ऐसे में पहला प्रश्न यह उठता है कि क्या यह हलचल 21वीं सदी का कोई नया इतिहास लिखने जा रही है?


हाइड्रोजन बम : उलझ पड़ीं महाशक्तियां

क्या प्योंगयांग स्वयं इस ‘मसल गेम’ का नायक है अथवा एक प्यादा भर? यदि वह प्यादा है तो नायक अथवा खलनायक कौन है-बीजिंग, मॉस्को, इस्लामाबाद या स्वयं वाशिंगटन?
समाचार एजेंसियों के अनुसार उत्तर कोरिया ने रविवार को हाइड्रोजन बम का परीक्षण किया, जो परमाणु बम से 9.8 गुना ताकतवर है. प्योंगयांग द्वारा अब तक परीक्षण किए गए हथियारों में यह सबसे अधिक शक्तिशाली है. यह बम उत्तर कोरिया की लंबी दूरी की मिसाइलों से भी दागा जा सकता है. हालांकि अमेरिकी जियोलॉजिकल सव्रे ने 6.3 तीव्रता का झटका दर्ज किया है. इस दृष्टि से उत्तर कोरियाई द्वारा किए गए विस्फोट पर यह शंका हो सकती है कि वह उतना ताकतवर नहीं है जितना प्योंगयांग दावा कर रहा है लेकिन इतना तो तय है कि उत्तर कोरिया ने वैश्विक ताकतों की धमकी और प्रतिबंधों के भय को दरकिनार करते हुए विस्फोट किया है. हालांकि इसके बाद दक्षिण कोरिया, जापान, अमेरिका और यहां तक कि चीन की तरफ से अपनी-अपनी तरह से गुस्से का इजहार किया गया. लेकिन क्या यह गुस्सा सिर्फ नुमाइशी है या फिर इसका कोई असर भी पड़ने वाला है? उत्तर कोरिया ने अपनी नाभिकीय शक्ति का इतिहास लिखना वर्ष 2006 से शुरू किया था. यहां से लेकर अब की यात्रा में उत्तर कोरिया न ही किसी से डरा और न रुका.

उल्लेखनीय है कि उत्तर कोरिया बहुत दिनों से हाइड्रोजन बम बनाने की कोशिश में है और इस दिशा में अब तक रिपोर्टे लगातार बताती रहीं कि उत्तर कोरिया एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन (बैलेंस ऑफ पावर) बनाने कोशिश में है, लेकिन इसके बावजूद कुछ देश इसे उसका ‘बम प्रोपोगैंडा’ समझते रहे या यह कहकर उसे बचाते रहे. इस बीच पश्चिमी विशेषज्ञ यह मानते रहे कि प्योंगयांग एक थर्मोन्यूक्लियर विस्फोट विकसित करने से वर्षो दूर है क्योंकि किसी हाइड्रोजन या थर्मोन्यूक्लियर उपकरण श्रृंखला अभिक्रिया में संलयन (फ्यूजन) का प्रयोग होता है, जिससे अकेले प्लूटोनियम या यूरेनियम से होने वाले विखंडन विस्फोट की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली विस्फोट होता है.

उनका तर्क यह था कि उत्तर कोरिया प्रौद्योगिकीय स्तर पर इतना एडवांस नहीं है कि अकेले फ्यूजन डिवाइस विकसित करने में सफल हो पाएगा. ऐसे में यह प्रश्न जरूर होना चाहिए कि फिर उसे इस स्थिति तक किसने पहुंचाया? स्वाभाविक रूप से बीजिंग या मॉस्को ने. फिर बीजिंग किस बात से गुस्सा हो रहा है ? दरअसल, उत्तर कोरिया इस बम के जरिए दुनिया को अपनी ताकत का एहसास कराना चाहता है. ‘दबाव के लिए परमाणु ताकत’ की नीति बेहद घातक हो सकती है क्योंकि इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उत्तर कोरिया फिजिकल रेस्पांस यानी परमाणु हमले की जद तक भी जा सकता है. पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वर्ष 2014 में दक्षिण कोरिया की अपनी यात्रा के दौरान उत्तर कोरिया को ‘अछूत दश’ करार दिया था. साथ ही संकल्प लिया था कि यदि प्योंगयांग और परीक्षण करता है तो उसके खिलाफ और कड़े कदम उठाए जाएंगे. लेकिन प्योंगयांग नहीं रुका.

अब ट्रंप क्या करेंगे? गौर से देखें तो कोरिया ने कुछ भी ऐसा नया नहीं किया है, जिसकी कोई संभावना ही न रही हो. यह अफवाह तो 2002 में ही उड़ गई थी कि वह यूरेनियम और प्लूटोनियम, दोनों को ही रिप्रॉसेस करने वाली टेक्नोलॉजी विकसित कर रहा है. इसमें मूल भूमिका पाकिस्तानी मेटलरजिस्ट अब्दुल कादिर खान की थी, जिन्होंने 2004 में यह स्वीकार भी कर लिया था कि उसने 1991-97 के बीच में उत्तर कोरिया को यूरेनियम की टेक्नोलॉजी बेची थी. कोरियाई प्रायद्वीप का यह संघर्ष अमेरिका, रूस और चीन की देन है. मुख्य रूप से दो देश इस बीमारी को ठीक करने के बहाने संघर्ष को भड़काने का काम कर रहे हैं, जिससे वे अपनी ताकत को प्रशांत क्षेत्र में टेस्ट कर सकें. ध्यान रहे कि दोनों देशों के बीच मौजूदा तनाव वैसे तो शीतयुद्ध के काल से ही चला आ रहा है लेकिन सोवियत संघ के विघटन और पूंजीवाद के नाम पर स्थापित हो रहे नव साम्राज्यवाद की विजय के बाद से इसमें नये आयाम भी जुड़ गए, जिन्होंने इसे और अधिक भड़काया, कम नहीं किया.

यही वजह है कि प्योंगयांग नियंत्रण से बाहर चला गया. तो क्या ट्रंप अब इसे रोक पाएंगे? अमेरिका यह भली-भांति जानता है कि उत्तर कोरिया 1960 के दशक से परमाणु हथियारों के अधिग्रहण की इच्छा रखता है और यह उसकी राजनीतिक स्वायत्तता, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सैन्य शक्ति की इच्छा में निहित है. इसके साथ ही किम जोंग-उन अमेरिका की ओर से किसी संभावित हमले से निपटने के लिए पहले ही बचाव के उपाय तैयार कर लिए हैं. रही बात ट्रंप या उनके सहयोगियों अथवा वैश्विक ताकतों की, तो उन्हें अब यह मान लेना चाहिए कि आर्थिक प्रतिबंध उत्तर कोरिया को नहीं रोक सकते.

सैन्य कार्रवाई ही अब मात्र विकल्प है. लेकिन अब यह सम्भव नहीं लगता. यह बात लगभग सभी मान सकते हैं कि अमेरिका के साथ उत्तर कोरिया का युद्ध उसके लिए आत्महत्या जैसा कदम साबित हो सकता है. लेकिन यदि अमेरिका उत्तर कोरिया के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करता है तो टोक्यो और सियोल को परमाणु बम का हमला भी झेलना पड़ सकता है. यही नहीं दक्षिण कोरिया में मौजूद 28,500 अमेरिकी सैनिकों का जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा. इसलिए राष्ट्रपति ट्रंप युद्ध की चेतावनी दे सकते हैं लेकिन युद्ध के विकल्प का चुनाव नहीं कर सकते. इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र संघ कोई समाधान खोज सकता था लेकिन इन दिनों उसकी हालत ‘लीग ऑफ नेशंस’ की तरह है, जो छोटे-मोटे झगड़े सुलझाने में सफलता प्राप्त कर गयी लेकिन बड़े झगड़ों को नहीं रोक पाई, जिसके कारण ही दूसरा वियुद्ध दुनिया को झेलना पड़ा था. फिलहाल अभी समाधान खुर्दबीन से देखने पर भी नजर नहीं आ रहा.

डॉ. रहीस सिंह
लेखक


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