मंत्रिमंडल फेरबदल के मायने

Last Updated 04 Sep 2017 04:52:03 AM IST

नरेन्द्र मोदी के तीसरे मंत्रिमंडल विस्तार की जितनी चर्चा हुई उतनी 5 जुलाई 2016 को उनके दूसरे बड़े विस्तार की नहीं हुई थी, जबकि जिस तरह आधा दर्जन मंत्रियों ने अभी इस्तीफा दिया था उसी तरह उस समय भी.


मंत्रिमंडल फेरबदल के मायने.

रेल दुर्घटना के बाद सुरेश प्रभु के इस्तीफे से इसकी चर्चा आरंभ हो गई थी, किंतु इसका एक कारण यही हो सकता है कि इसे 2019 की मोर्चाबंदी वाला फेरबदल माना जा रहा है. मंत्रियों द्वारा त्यागपत्र देने का पहला निष्कर्ष यही निकल रहा था कि प्रधानमंत्री इसके द्वारा यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि जिन मंत्रियों के प्रदर्शन से वे पूर्ण संतुष्ट नहीं हैं उनको साफ संकेत दे दिया गया है कि आपको जाना होगा या फिर आपका विभाग हमें बदलना पड़ेगा. हो सकता है इसके पूर्व भी उनको उनके काम को लेकर प्रधानमंत्री ने कहा होगा.

वस्तुत: लोक सभा चुनाव 2019 के इन लगभग 20 महीनों में नरेन्द्र मोदी देश को यह संदेश देना चाहते हैं कि उनकी सरकार बेहतर प्रदर्शन करने वाली सरकार होगी और जो बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकते, उनकी निजी छवि चाहे जैसी भी हो, उन्हें बदलना होगा. साथ ही जिनने उम्मीद के अनुरूप प्रदशर्न किया है उनको प्रोन्नत किया जाएगा. वैसे एक तर्क यह भी है कि 2019 के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा 350 सीटों का लक्ष्य निर्धारित किए जाने के बाद सरकार के साथ पार्टी का भी ज्यादा चुस्त-दुरुस्त चेहरे की आवश्यकता महसूस की गई है. इसलिए कुछ लोगों को सरकार से पार्टी में लाने की कवायद के तहत भी बदलाव हुआ है. हालांकि बदलाव का गहराई से विश्लेषण करें तो ऐसा लगता नहीं कि पार्टी की दृष्टि से इसमें कोई महत्त्वपूर्ण संदेश हो. वैसे चुनाव आधारित संसदीय लोकतंत्र में मंत्रिमंडल में बदलाव करते हुए क्षेत्रीय और सामाजिक समीकरण का ध्यान रखा जाता है.

मोदी इसके अपवाद नहीं हो सकते. हालांकि मोदी के सोचने और काम करने का तरीका कई पूर्व प्रधानमंत्रियों से थोड़ा अलग है. मसलन, मंत्रिमंडल विस्तार के पीछे हमेशा से एक सोच यह भी रही है कि विधान सभा चुनाव का ध्यान रखते हुए कुछ चेहरों को मंत्रिमंडल में इसलिए लाया जाए ताकि उससे वोट बढ़ने की संभावना बढ़े. हालांकि नौ नये राज्य मंत्रियों में मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं कर्नाटक से नाम हैं और वहां अगले वर्ष चुनाव हैं. किंतु इस वर्ष चुनाव वाले राज्यों गुजरात एवं हिमाचल प्रदेश से नाम नहीं है. छत्तीसगढ़ से नाम नहीं हैं. वैसे भी मध्य प्रदेश से एक मंत्री अनिल माधव दवे का देहांत हो गया था. सो उनकी जगह किसी को प्रदेश से लाना था. इसलिए कम-से-कम विधान सभा चुनाव की दृष्टि से इस मंत्रिमंडल विस्तार और फेरबदल का बहुत मायने नहीं है.

बिहार में तो चुनाव नहीं है. वहां से दो मंत्री लिये गए हैं. कहा जा सकता है कि केरल से एक मंत्री बनाकर प्रदेश में संगठन को शक्ति देने का प्रयास हुआ है, किंतु अल्पसंख्यक होने के साथ केजे अल्फांस की एक छवि ईमानदार और सामाजिक रूप से सक्रिय नौकरशाह की रही है. वस्तुत: नये लोगों में सारे नाम ऐसे हैं, जो या तो प्रदेश में मंत्री के रूप में या नौकरशाह के रूप में या सांसद और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर काफी बेहतर काम कर चुके हैं. इसलिए उनकी योग्यता की परख पहले से हो चुकी है. इसका अर्थ यह हुआ कि प्रधानमंत्री ने नये मंत्रियों के चयन में नेताओं के पूर्व कॅरियर और प्रदर्शन का ध्यान रखा है.



जिन मंत्रियों के विभाग बदले गए, जिनकी प्रोन्नति हुई या जिन्हें महत्त्वपूर्ण मंत्रालय दिया गया उनके पीछे भी मुख्य सोच सरकार के श्रेष्ठ प्रदर्शन का ही भाव दिखता है. पीयूष गोयल, मुख्तार अब्बास नकवी, निर्मला सीतारमण एवं धर्मेन्द्र प्रधान की कैबिनेट मंत्री के रूप में प्रोन्नति प्रधानमंत्री की नजर में उनके बेहतर प्रदर्शन का पुरस्कार है. आगे बढ़ें तो मनोहर पर्रिकर के गोवा का मुख्यमंत्री बनाए जाने के साथ ही रक्षा मंत्री के पद के लिए माथापच्ची चल रही थी. निर्मला सीतारमण को यह महत्त्वपूर्ण विभाग देना प्रधानमंत्री पर उनके विश्वास को प्रमाणित करता है. इसी तरह, रेल मंत्रालय की जिम्मेवारी पीयूष गोयल के सिर आना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि रेलवे में सुधार मोदी के प्रमुख लक्ष्यों में से एक रहा है. सूचना प्रसारण मंत्रालय और नगर विकास जैसे दो विभाग वेंकैया नायडू के उप राष्ट्रपति बनने से खाली हो गए थे. सूचना एवं प्रसारण मंत्री के तौर पर स्मृति ईरानी को बनाए रखना उनकी पेशेवर योग्यता के अनुरूप ही है.

धर्मेन्द्र प्रधान को तेल के अलावा कौशल विकास की जिम्मेवारी अहम है, क्योंकि प्रधानमंत्री रोजगार सृजन एवं स्टार्टअप का बहुत हद तक दारोमदार कौशल विकास की सफलता पर निर्भर है. विपक्ष ने इस फेरबदल की आलोचना की है. इसमें अस्वाभाविक जैसा कुछ नहीं है. किंतु निष्पक्ष नजरिए से देखा जाए तो निष्कर्ष वही नहीं आएगा जो विपक्ष बता रहा है. किसी प्रधानमंत्री ने अपने कार्यकाल के बीच में पहली बार मंत्रिमंडल में बदलाव नहीं किया है. सरकार चलाने के अनुभव और अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए भारत के सभी प्रधानमंत्रियों ने ऐसा किया है. अगर किसी का काम संतोषजनक नहीं है तो फिर उसको बदलने में क्या समस्या है? ऐसा किया ही जाना चाहिए. जैसे गंगा की स्वच्छता मोदी के मुख्य लक्ष्यों में से एक रहा है. उमा भारती ने उसमें काम किया, लेकिन परिणाम वैसे नहीं आए जैसी अपेक्षा थी. देखना होगा नितिन गडकरी इस अतिरिक्त प्रभार को कैसे निभाते हैं?

जैसा आम तौर पर माना जा रहा है मंत्रिमंडल का यह फेरबदल 2019 तक 2014 में जनता से किए गए वायदों को पूरा करने के लक्ष्य से किया गया है. अगर ऐसा ही है तो 2019 तक मोदी सरकार के समक्ष अनेक चुनौतियां हैं. विकास दर लुढ़क गया है. इसे फिर से पटरी पर लाना है. नोटबंदी के प्रभाव से अभी तक देश मुक्त नहीं हुआ है. कृषि विकास दर भी गिरा हुआ है. किसानों से किए गए सारे वायदे पूरे नहीं हुए हैं. रोजगार के मोर्चे पर संतोषजनक स्थिति नहीं है. कश्मीर में आतंकवादियों एवं सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष चरम पर है. विदेशी मोर्चे पर भी कई चुनौतियां हैं. प्रश्न है कि क्या अब मोदी मंत्रिमंडल की पूरी टीम इन चुनौतियों का सामना करते हुए अपेक्षित सफलताएं पाएगी? अभी उत्तर देना कठिन है. अगर सफल नहीं हुए तो फिर 2019 में वे जनता के सामने क्या हिसाब देंगे जिसकी बात प्रधानमंत्री करते रहे हैं?

अवधेश कुमार


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