अनु. 35-ए : समानता की लड़ाई

Last Updated 23 Aug 2017 04:45:46 AM IST

मुझे मेरे बेटे के लिए जम्मू-कश्मीर की नागरिकता प्रमाणपत्र बनवाना था. अर्जी के साथ अपनी नागरिकता का प्रमाणपत्र जोड़ा.


अनु. 35-ए : समानता की लड़ाई

जब सरकारी बाबू ने अर्जी देखी तो कहा पिता का प्रमाणपत्र क्यों नहीं है? मैंने जवाब दिया कि मेरा प्रमाणपत्र तो अर्जी के साथ लगा हुआ है. सरकारी बाबू ने कहा कि मेरा प्रमाणपत्र मान्य नहीं है, पिता का या दादा का है तो बन जाएगा. मेरे एतराज करने पर बाबू ने समझाया कि शादी के बाद पति के प्रमाणपत्र के आधार पर कश्मीरी शादी शुदा महिला को नया स्टेट सब्जेक्ट र्सटििफकेट बनना अनिवार्य है. इसका मतलब साफ था: शादी के बाद मेरे पिता के नाम पर बना मेरा स्टेट सब्जेक्ट र्सटििफकेट अमान्य है और मुझे मेरे अधिकार तभी मिलेंगे जब मेरा प्रमाणपत्र मेरे पति के नाम पर होगा. यह सुन कर मुझे अच्छा नहीं लगा.

सरकारी बाबू ने कहा कि मुझे भी अर्जी देनी चाहिए और मेरे पति के नाम पर मेरी कश्मीरी नगारिकता सुनिश्चित करना चाहिए. इन शब्दों ने मुझे एक झटके में अपने दोयम दर्जे के होने का एहसास दिलाया. मेरे परिवार ने कभी भी बेटा-बेटी में फर्क नहीं किया, लेकिन जम्मू-कश्मीर के कानून ने मुझे एहसास दिलाया कि मेरी पहचान मेरे पिता और पति से है. आर्टकिल 35 ए और धारा 370 में वह सब है, जो समानता और मानवाधिकार के विरुद्ध है. इन धाराओं ने एक कश्मीरी महिला के अधिकार को सीमित कर दिया है, उसकी पसंद-नापसंद पर लकीर खींच दी है.

दूसरे समुदाय का युवक पसंद किया तो कश्मीर के अधिकार से हाथ धो बैठोगी. अधिकार खोने का मतलब है कि कश्मीरी होने की पहचान खत्म होना. इसका मतलब ये भी है कि वह अपने पिता की विरासत की हकदार नहीं हो सकती है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि कश्मीर की जमीन पर उसका कोई हक नहीं हो होगा. वह कश्मीर में मकान या जमीन नहीं खरीद सकती है. वह राज्य में चुनाव नहीं लड़ सकती है और उससे राज्य में सरकारी नौकरी भी नहीं मिल सकती है. उसकी पहचान उन लाखों पर्यटकों की तरह हो जाती है जो कुछ दिनों के लिए कश्मीर में आते और घूम-फिरकर चले जाते हैं. ऐसी महिलाओं के बच्चों का कश्मीर पर कोई हक नहीं है.

राबिया बशीर (बदला नाम) ने एक गैर कश्मीरी मुस्लिम युवक से शादी की. सुसराल वाले अपनी सुंदर बहू से बहुत खुश थे. लेकिन परिवार में धीरे-धीरे प्यार कम होता गया, जब उन्हें एहसास हुआ कि राबिया के अमीर पिता की संपत्ति में उससे कुछ नहीं मिलेगा. हालात यहां तक पहुंच गए कि राबिया के पति ने अपने माता-पिता से अलग होने का फैसला लिया और नई गृहस्थी बसा ली. राबिया का कहना है कि उससे इसका एहसास ही नहीं था कि प्यार के लिए उससे इतनी बड़ी कुर्बानी देनी पड़ेगी. अब वह चाहती है कि कश्मीरी महिलाओं को इंसाफ मिले. तानिया कौल ने शादी हैदराबाद के एक युवक से की. उसने अपने नाम में रेड्डी तो जोड़ा पर अपनी कश्मीरी पहचान बनाए रखने के लिए ‘कौल’ को अपने नाम से हटाया नहीं. लेकिन तानिया की पहचान अब कश्मीरी की नहीं है.

इतना निर्मम कानून 21वीं सदी में भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लागू है. इस कानून की पीड़ा तो शायद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला समझते ही होंगे. उनकी इकलौती बेटी सारा ने सचिन पायलट से शादी की है. इस कारण सारा का अब्दुल्ला परिवार की संपत्ति पर कोई हक नहीं है. पर दूसरी तरफ फारूक के इकलौते बेटे उमर अब्दुल्ला ने एक गैर कश्मीरी लड़की से शादी की और कुछ नहीं खोया. उमर की मां लंदन की थी पर उन्हें और उमर को कश्मीरी होने के सारे अधिकार मिले. लेकिन बेटी की पीड़ा को दरकिनार कर फारूक 35 ए के पक्ष में केंद्र से विद्रोह करने की योजना बना रहे हैं. और इसमें मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी शामिल हैं.

सवाल है कि कश्मीरी युवती के ही अधिकार निरस्त क्यों हैं? यह भेदभाव नहीं है तो क्या है? तर्क ये दिया जाता है कि लड़के से वंश चलता है. लड़की की ‘बाहरी’ आदमी से शादी करने पर उसके ‘बाहरी’ ससुराल वाले कश्मीर की जमीन पर कब्जा कर सकते हैं. इस तरह से ‘बाहरी’ लोग मूल कश्मीरियों की जल जमीन धीरे-धीरे हथिया सकते हैं. तर्क यह दिया भी जा रहा है कि मुस्लिम बहुल घाटी को मुस्लिम अल्पसंख्यक इलाके में बदलने की साजिश भी रची जा सकती है. धार्मिंक भावनाओं की ओट में घाटी में 35ए और धारा 370 के समर्थन में मर-मिटने की धमकियां दी जाने लगी हैं. 35ए धर्म या जमीन का विषय नहीं है. यह संविधान से प्राप्त अधिकार की लड़ाई है.

दीपिका भान
लेखिका


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