भाजपा का 360 सीटों का लक्ष्य

Last Updated 21 Aug 2017 05:15:32 AM IST

भाजपा के 30 से ज्यादा शीर्ष नेताओं के साथ बैठकर कर अमित शाह ने 2019 के लिए 360 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है.




अमित शाह ने 360 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा (फाइल फोटो)

ऐसा नहीं है कि शाह ने केवल लक्ष्य दे दिया और काम खत्म. उस लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है, पार्टी नेताओं को क्या भूमिका निभानी है, पिछले चुनाव में जहां-जहां सामान्य अंतर से हारे उन्हें कैसे जीत में परिणत करना है, पिछले चुनाव के अलावा कहां-कहां सीटें जीतने की संभावना हो सकती है आदि पहलुओं पर गंभीरता से चर्चा हुई. इसके बाद मुख्यमंत्रियों एवं उप मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक होगी. ऐसी 150 सीटों पर फोकस किया गया जहां पार्टी को जीतने के लिए जोर लगाना है.

शाह पहले से ही चुनाव के क्रम में राज्यों का दौरा कर रहे हैं. उनकी योजना 19 राज्यों में तीन दिन, सात राज्यों में दो दिन और शेष राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में कम-से-कम एक दिन रुककर पूरी स्थिति का जायजा लेना और पार्टी मशीनरी को काम में झोंक देना है. जरूरत पड़ने पर रुकने की अवधि बढ़ाई भी जा सकती है.

उदाहरण के लिए अंडमान निकोबार द्वीप समूह में शाह तीन दिनों तक रुके. वहां से लोक सभा की केवल एक सीट है. इसी से अनुमान लगाइए कि शाह आगामी लोक सभा चुनाव को किस तरह ले रहे हैं. भाजपा उत्तर और पश्चिम के राज्यों में पहले से ही अधिकतम सीटें जीत चुकी हैं. इसमें कहां से और कितनी वृद्धि हो सकती है. तो उसके लिए वे राज्य बचते हैं, जहां उसका प्रदर्शन कमजोर था. जैसे उड़ीसा के 21 में से उसे केवल एक, आंध्र प्रदेश के 42 में से दो, तेलांगना के 17 में से 1, तमिलनाडु के 39 में से 1, केरल के 20 में से एक भी नहीं, कर्नाटक के 28 में से 17, प. बंगाल के 42 में से 2, असम के 14 में सात सीटें मिलीं थीं.

इस प्रकार 223 सीटों में उसे केवल 31 सीटें मिलीं थीं. इसी तरह पूर्वोत्तर के एक-दो सीटों वाले राज्य हैं, जहां उसका खाता नहीं खुला था. 360 सीटें पाने का मतलब है 2014 में जीती गई सीटों को बनाए रखना और इन राज्यों में बेहतर स्थिति पाना. यानी 223 में से कम-से-कम एक तिहाई सीटें पा लेना. यह लक्ष्य आसान नहीं है.

भाजपा के सामने गठबंधन की कठिनाइयां भी हैं. उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश में उसका तेलुगू देशम से गठबंधन है. अगर यह गठबंधन बना रहता है तो उसे लड़ने के लिए ही 5 या 6 सीटें मिलेंगी, फिर वह कितनी सीटें बढ़ा पाएगी? पंजाब में भी अकाली से गठबंधन कायम रहता है तो उसे परंपरागत रूप से केवल 3 सीटें लड़ने के लिए मिलेंगी.

भाजपा ने अभी तक इन राज्यों में गठबंधन तोड़कर अपना संगठन विस्तार करने और स्वयं अपनी बदौलत चुनाव लड़ने का कोई संकेत नहीं दिया है. भाजपा अगर गठबंधन नहीं तोड़ती है तो उसे अतिरिक्त 80 सीटें पाने के लिए इन दो राज्यों के अलावा ही फोकस करना होगा. प्रश्न है कि क्या इन राज्यों की स्थिति भाजपा के लिए अनुकूल हो सकती है? तमिलनाडु भाजपा के लिए लंबे से निराशा देने वाला राज्य रहा है. किंतु जयललिता के जाने के बाद वहां की राजनीति में एक शून्यता आई है भाजपा उसका लाभ उठाना चाहती है. 

देखना होगा कि तमिलनाडु की राजनीति किस दिशा में मुड़ती है. केरल में उसका जनाधार बढ़ रहा है यह साफ है. किंतु वह वहां सीटें जीतने की स्थिति में आती है या नहीं कहना मुश्किल है. तेलांगना उसके लिए थोड़ा अनुकूल हो सकता है लेकिन उसमें अत्यंत परिश्रम की आवश्यकता है. प. बंगाल में भी उसका जनाधार बढ़ा है किंतु अभी तक वह उस स्थिति में नहीं है कि ममता बनर्जी की लोकप्रियता को धक्का देकर ज्यादा सीटें जीत सके. हाल में हुए स्थानीय निकाय चुनाव में वह दूसरे स्थान पर अवश्य रही लेकिन तृणमूल के 140 के मुकाबले में भाजपा छह सीटें ही जीत सकीं. उड़ीसा के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया है. उसकी लोकप्रियता वहां बढ़ी है. उसका परिणाम है कि बीजू जनता दल के अनेक नेता उसकी पार्टी में शामिल होने को तैयार हैं. तो इन राज्यों में उसके लिए सबसे अनुकूल आज की स्थिति में उड़ीसा ही दिखता है. असम में उसकी सरकार है. लेकिन यहां भी गठबंधन का मामला है. कर्नाटक में आपको 17 सीटें पहले से ही है. उसमें कितने की वृद्धि हो जाएगी.



इस तरह भाजपा के लिए इन राज्यों में पहले से बेहतर प्रदशर्न करना बहुत बड़ी चुनौती है. चुनावों में माहौल की भूमिका बहुत बड़ी होती है. यह तो स्वीकार करना होगा कि भाजपा के एकदम खिलाफ माहौल कहीं नहीं है. चुनावों में दूसरा कारक सरकार का कार्य होता है. भाजपा सरकार के कार्यों को लेकर तो दो राय हो सकते हैं, लेकिन उसके कुछ कदमों से व्यापक जन असंतोष हो ऐसा दिखाई नहीं देता. तीसरा कारक प्रतिस्पर्धियों की स्थिति होता है. राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का कोई एक चेहरा ऐसा सामने नहीं आया है, जिसे नरेन्द्र मोदी की तुलना में लोग ज्यादा विश्वसनीय और काबिल मान सकें. विपक्ष की इस कमजोरी का लाभ भाजपा को मिल सकता है. विपक्ष की एकता भी अभी तक कोई रंग नहीं जमा सका है. हां, क्षेत्रीय स्तर पर चुनौतियां हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद बीजद की चुनौती उड़ीसा में, तेलांगना राष्ट्र समिति का तेलांगना में है. इसी तरह तमिलनाडु में कई क्षेत्रीय दल बड़ी चुनौतियां हैं.

वैसे यह मानकर चलना भी व्यावहारिक नहीं होगा कि पिछले चुनाव में भाजपा ने जो सीटें जीतीं थीं वे सारी 2019 में भी उसकी ही झोली में आएंगी. आ भी सकती हैं, पर निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं  कहा जा सकता है. शायद इसीलिए अमित शाह ने 80 की जगह 150 सीटों को चिह्नित किया है. जो भी हो भाजपा ने सबसे पहले लक्ष्य तय कर तैयारी आरंभ कर दी है तो इसका लाभ उसे मिल सकता है. भाजपा ने अपने को स्थायी रूप से चुनावी मोड में रहने वाली पार्टी के रूप में परिणत किया है.

 अमित शाह और नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी ने इस स्थिति को समझा और जहां भी चुनाव हो वहां साल भर या दो साल पहले से ही उसकी तैयारी आरंभ करा दिया. जिस ढंग से शाह और मोदी पार्टी को संचालित कर रहे हैं वैसा दूसरी पार्टयिों में नहीं दिखता. नेताओं के लिए यह निर्देश जारी हो गया कि वे रेल या सड़क मार्ग को प्राथमिकता दें. रात में कहीं ठहरना पड़े तो कार्यकर्ता के घर रुकें और उसमें भी दलित, आदिवासी को प्राथमिकता दें. इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर दूसरी कोई पार्टी कार्य करती नहीं दिख रही है.

 

 

अवधेश कुमार


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