नजरिया : थोड़ा उदार बनें ट्रंप

Last Updated 19 Mar 2017 05:17:42 AM IST

अमेरिका में जब डोनाल्ड ट्रंप सरकार का गठन हो रहा था, तब भारत में भी खुशी का माहौल था. वजह थी आतंकवाद के खिलाफ ट्रंप की स्पष्ट नीति.


नजरिया : थोड़ा उदार बनें ट्रंप

लेकिन जिस दिन से अमेरिका के कांसास शहर में भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या सिर्फ इसलिये की गई कि वह दूसरे देश से है, अमेरिकी नहीं है. दूसरी घटना मार्च के पहले सप्ताह में शुक्रवार को वाशिंगटन में हुई जब 39 साल के सिख दीप राय को यह कहते हुए गोली मार दी गई कि ‘अपने देश वापस जाओ.’ तीसरी घटना हरनीश पटेल के साथ हुई, जो 14 सालों से अमेरिका में अपने परिवार के साथ रह रहे थे. उनको भी यही कहते हुए गोली मार दी गई कि ‘अपने देश वापस जाओ.’

ये तीन चौंका देने वाली घटनाएं अमेरिका जैसे देश पर बड़ा सवालिया निशान खड़ा करती हैं. वहां नस्लीय हिंसा दावानल की तरह फैलती दिख रही है. ट्रंप सरकार बनने के बाद जो माहौल अमेरिका में बन चुका है, वह अब किसी के समझ में नहीं आ रहा है. अमेरिका दुनिया में एक अलग पहचान रखने वाला देश है; जहां लगभग 300 देशों की नागरिकता रखने वाले लोग प्रवास करते हैं. अमेरिकियों ने अपने देश का हृदय इतना विशाल बनाया कि वहां सबके लिये थोड़ी-बहुत जगह उपलब्ध हो गई. दुनिया भर से इतने प्रतिभावान लोग अमेरिका पहुंचे और उसके विकास में अपना योगदान देकर उसे दुनिया का सिरमौर बना दिया. अमेरिका के हर बड़े संगठन में भारतीयों की सूझ-बूझ और प्रतिभा का डंका बजता है. चाहे वह हेल्थ सेक्टर हो, फाइनेन्सियल मॉर्केट हो या फिर नासा; हर जगह भारतीयों ने अपने हुनर का परचम लहराया है.

अगर एच+1बी वीजा का कोटा अमेरिकी सरकार घटाकर बहुत नीचे ले आती है तो उससे भारत और भारतीयों का कोई बहुत नुकसान नहीं होने वाला है. जिस तरह से पानी को कहीं भी रखा जाए अपने लिये जगह बना ही लेता है. ठीक उसी तरह प्रतिभावान व्यक्ति अपने लिये उचित स्थान प्राप्त कर ही लेता है. ट्रंप की अदूरदर्शिता और राजनीतिक सूझ-बूझ न होने के कारण इतनी मुश्किलें अमेरिका के सामने आने वाली हैं, जो अमेरिका को सैकड़ों साल पीछे ले जायेंगी. वही एच+1बी वीजा कम जारी होने से कनाडा और यूरोपियन यूनियन के देशों की चांदी हो जायेगी. उनकी अर्थव्यवस्था को पनपने का बहुत अच्छा मौका मिलेगा. इस समय अमेरिका में करीब 1.66 लाख भारतीय बच्चे वहां पढ़ाई कर रहे हैं. अगर वहां के हालात ठीक नहीं होते तो वहां अपने बच्चों को पढ़ने के लिये कौन भेजेगा? बात सिर्फ भारत की नहीं है, बात दुनिया के और देशों की भी है.

न्यूयार्क में रहने वाले मेरे एक करीबी मित्र ने बताया कि उनके पड़ोस में किसी भारतीय के घर कढ़ी बनाने के लिये छौंक लगाई जा रही थी. इसकी गंध पड़ोस के घरों तक पहुंची. अब पड़ोसी अमेरिकन को एक नया बहाना मिल गया और 15-20 लोग भारतीय के दरवाजे जा पहुंचे और उनको भला-बुरा कहने लगे भारतीय खान-पान पर फिकरे कसने लगे. कुछ अमेरिकी लड़कों ने सोशल मीडिया, यहां तक कि कम्युनिटी रेडियो पर भी इन बातों को लेकर विरोध जताया और कहा कि भारतीयों को यहां से चले जाना चाहिए.

ये घटना कोई सामान्य घटना नहीं है. अमेरिका के सुदूर कंट्री साइड एरिया में अगर ऐसा कुछ घटता है तो उसे थोड़ा-बहुत समझा जा सकता है. लेकिन न्यूयार्क की ये घटना बहुत डर पैदा करती है. यहां रहने वाले अमेरिकियों की समझ पर एक भरोसा आता है. अब अगर न्यूयार्क में रहने वाले अमेरिकी ही इतनी नफरत से भर चुके हों तो सवाल बहुत गंभीर हो जाता है. कोई भी राष्ट्रपति हो या कोई भी सरकार हो, उसका पहला राजधर्म यही होता है कि वह अपने देश की सीमा में रहने वाले सभी प्राणियों की रक्षा करे अगर इस भावना में गिरावट आती है तो उसके लिये सरकार एवं नेतृत्व दोनों को उत्तरदायी ठहराना चाहिए. अमेरिका सिर्फ अमेरिकी लोगों के लिये है-ये संदेश देना अमेरिका के कद को छोटा करता है.

अगर हम इतिहास को पलटें तो यह पता चलता है कि प्रथम विश्व युद्ध के समय जब पूरा यूरोप, जापान और रूस युद्ध की विभीषिका में जूझ रहे थे, तब तात्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस बुडरी विल्सन ने दुनिया के सभी प्रतिभाशाली लोगों के लिये अमेरिका के दरवाजे खोल दिये थे. फिर आइंस्टीन समेत दुनिया भर के अनेकों वैज्ञानिक अमेरिका में जाकर बस गये. यहीं से अमेरिकी वैज्ञानिक युग की शुरुआत होती है. इस सदी को बदलने में जो योगदान अल्बर्ट आइंस्टाइन का है, वह शायद ही कि सी का हो. कल्पना कीजिए, अगर आइंस्टीन जर्मनी में रहते तो जर्मनी की हैसियत वैज्ञानिक खोजों में अमेरिका से ज्यादा होती.

ऐसा नहीं है कि पिछले 20 सालों में जितने राष्ट्रपति हुए उन पर यह दबाव नहीं रहा होगा कि बेरोजगार अमेरिकी बच्चों को कैसे काम उपलब्ध कराया जाय? ओबामा ने भी अमेरिकी बच्चों को मेहनत करने की सलाह दी थी ताकि भारतीय बच्चे उनसे उनकी नौकरियां न छीन लें. लेकिन अमेरिका में सामाजिक समरसता कभी नहीं टूटी. बीच का रास्ता लेते हुए हर राष्ट्रपति ने पूरी जिम्मेदारी से अमेरिका को दुनिया के लिये एक बेहतरीन गंतव्य बनाये रखा. सबने इसका पूरा ख्याल रखा कि चुनाव जीतने के लिये उन्हें क्या वादे करने चाहिए. यहां राष्ट्रपति ट्रंप को अपने पूर्ववर्त्ती रूजवेल्ट और विल्सन से सीख लेनी चाहिए कि किस तरह उन्होंने अमेरिका को एक महान व शक्तिशाली देश बनाया और उदार भी.

हां, अपना चुनाव जीतने के लिये जनता को ज्यादा भावुक बना देना भी ठीक नहीं है. एक उदाहरण मैं ब्रिटेन के इतिहास से देना चाहूंगा. जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के रूप में डिजरायली को चुना गया तो पूरी दुनिया में बहस चल पड़ी कि कैथोलिक और प्रोटेस्टेंटों के बीच एक यहूदी को कैसे प्रधानमंत्री चुन लिया गया? लेकिन इतिहास बताता है कि डिजराइली से ज्यादा सफल कोई प्रधानमंत्री ब्रिटेन को शायद ही मिला. यही वजह है कि दुनिया में लोग मानते रहे हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन की बात ही कुछ और है. लेकिन अब ट्रंप के अमेरिका में भयानक रूप लेती नस्लीय हिंसा ने अमेरिका के गौरव को नीचे गिराने का काम किया है.

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीइओ एवं एडिटर इन चीफ


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