प्रसंगवश : शब्द से सत्ता तक

Last Updated 26 Feb 2017 06:04:26 AM IST

इस अर्थ में शब्द बेचारे होते हैं कि उनकी अपनी कही जा सकने वाली कोई ठोस निजी सत्ता नहीं होती. पर वे ‘अक्षर’ भी कहलाते हैं यानी ऐसी वस्तु जो कभी न मरने वाली हो.


प्रसंगवश : शब्द से सत्ता तक

अशरीरी हो कर भी शब्द  नर नहीं होते. आवाजों की जोड़-तोड़ से बने शब्द की दरअसल समाज की सम्पत्ति हुआ करते हैं. उनकी सत्ता उनके प्रयोक्ता पर ही निर्भर करती है. वे जैसे चाहें अपनी मर्जी-मुताबिक किसी शब्द को (सही या गलत) ढंग से प्रयोग में लाएं या न लाएं. शब्द अपनी औकात प्रायोगिक संदर्भ से ही अर्जित करते हैं या खोते हैं.

दुरुपयोग करने से शब्द अपनी चमक या गरिमा खोने लगते हैं. कौन व्यक्ति या समुदाय कब किसी शब्द का कहां और किस असर के साथ प्रयोग करता है या कर सकता है, इसके कुछ सामाजिक नियम तो जरूर बनाए गए हैं पर यह कत्तई जरूरी नहीं है कि उसका उपयोग सब लोग एक ही ढंग से करें और उसके एक से ही परिणाम भी घटित हों. लोग शब्द प्रयोग के मामले में काफी छूट ले लेते हैं. संसद में असंसदीय शब्द प्रयोग को लेकर अक्सर बहस चलती है. चुप बैठे शब्द जब बोलने लगते हैं तो वे बड़े-बड़े परिवर्तन को अंजाम देने लगते हैं. आखिर शब्दों के अलावे जुड़ने-जोड़ने का कोई और तरीका भी तो नहीं है.

सच कहें तो शब्द, जिनकी मूलत: सामाजिक-सांस्कृतिक सत्ता होती है, स्वयं में तो निरीह से होते हैं और पूरी तरह से दूसरों पर ही निर्भर रहते हैं. उनकी ताकत तब दिखती है, जब वे जब सक्रिय हो कर प्रयोग में आते हैं. मानव इतिहास इस बात का गवाह है कि शब्द सहयोग, संघर्ष युद्ध, क्रांति कुछ भी ढा सकते हैं. ठीक तरह से प्रयोग करने से जहां शब्दों से बात बन जाती है तो वहीं गलत प्रयोग करने से बात बिगड़ भी जाती है. शब्द की शक्ति को ले कर संस्कृत के वैयाकरणों में यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘एक शब्द का ठीक-ठीक प्रयोग धरती और स्वर्ग दोनों में आदमी की सारी इच्छाओं को पूरा कर देता है’.

यानी शब्द बेहद कीमती मानवीय उपलब्धि है. इतनी कीमती उपलब्धि कि वह जीवन-मरण, यश-अपयश, कीर्ति-अपकीर्ति सब कुछ को संभव कर देती है. वह हम सबकी निजी सत्ता को परिभाषित करती चलती है. भारत के  स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रचलित नारे और गाने देशवासियों के मन को उद्वेलित कर सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह ही नहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में शामिल होने के लिए भी उद्यत करने में समर्थ हो सके थे.

अपने आस-पास गौर करें तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि शब्द हमारे लिए प्रेम से घृणा तक, सहयोग से संघर्ष तक, प्रेम से हिंसा तक और गहरी पीड़ा से उच्छल आनंद तक पसरे तरह-तरह की भावनाओं की दुनिया को सजीव और जीवंत कर देते हैं. सुकून, तसल्ली, ढाढ़स, शांति, विश्वास, दिलासा, भरोसा और आराम जैसे शब्द हमारी अमूर्त सकारात्मक मनोदशा को सम्बोधित करते हैं. हर किसी को पता रहता है कि इनके आने से जिंदगी में रौनक आ जाती है और लोगों के चेहरे खिल उठते हैं. दूसरी ओर अपमान, घृणा, अनादर, वैमनस्य, कटुता और धोखा जैसे शब्द नैराश्य को जन्म देते हैं और नकारात्मक मनोदशाओं से जुड़े हैं.

देश के राजनैतिक जीवन में दिन-प्रतिदिन चुनावी नाटक का नया अंक मंचित हो रहा है और टी वी की कृपा से सारा देश निरु पाय दर्शक बना देख रहा है. सभी नेताओं का मूल अस्त्र बन रहा है. खोज-खोज कर लाए गए चुनिंदा जुमलों की सहायता से बने तीखे और धराशायी करने वाले (खोखले) शब्द बाण. इन्हें ईजाद कर तीखे और चुटीले प्रहार कर विरोधी को घायल करना ही अब राजनैतिक उपलब्धि गिनी जाती है. एक दूसरे के ज्ञान (अज्ञान) को लेकर तंज कसना, अब आम बात हो गई है.

उभरते राजनैतिक विमर्श में पार्टी, नीति, मुद्दा या विषय की जगह अब व्यक्ति ही केंद्रीय होता जा रहा है. वैचारिक प्रतिबद्धता का हाल यह है कि भिन्न-भिन्न मतों में विश्वास रखने वाली पार्टियां गठजोड़ करती हैं पर यह गठजोड़ भी अद्भुत किस्म का है. यह पार्टी नहीं प्रत्याशी केंद्रित होता है अर्थात मेल करने वाली दोनों पार्टयिों को इसकी छूट रहती है कि वे एक प्रत्याशी को समर्थन दें सकेंगे तो दूसरे का विरोध भी कर सकेंगे. जनता को बुद्धू समझते ये नेता विलक्षण समझदारी और अलौकिक किस्म की परिपक्वता दिखाते हैं. वे राज-सत्ता हथियाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. शब्द रथ पर सवार नेता गण जन अरण्य में भटकी सत्ता खोज रहे हैं. काश इस अभियान में शब्दों की पवित्रता बच पाती.

गिरिश्वर मिश्र
लेखक


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