परत-दर-परत : चुनावी मुद्दों की गड़गड़ाहट पर दो शब्द

Last Updated 26 Feb 2017 05:58:32 AM IST

जब राजनीति ठप हो जाये, तब चुनावी मुद्दे विदा होने लगते हैं. इन पांच विधान सभा के चुनाव प्रचारों को देखते हुए इस कथन की सत्यता का अनुभव किया जा सकता है.


राजकिशोर, लेखक

इस बात पर अनेक लोगों ने दुख व्यक्त किया है कि लैपटॉप बांटने, सस्ता घी मुहैया कराने, गांवों में बिजली देने, समर्थन मूल्य बढ़ाने आदि का वादों को क्या चुनावी मुद्दा कहा जा सकता है. ये तो प्रशासन की सामान्य जिम्मेदारियां हैं, जो किसी भी पार्टी की सरकार हो, उसे उठानी चाहिए. चुनाव प्रशासन  बदलने के लिए नहीं, राजनीति को बदलने के लिए होता है. अभी भी भारत का राष्ट्र निर्माण पूरा नहीं हुआ है. सामाजिक-अर्थिक क्षेत्र में अनेक गंभीर समस्याएं बनी हुई हैं. देश के आधे से ज्यादा लोग अपने को भविष्यहीन पाते हैं. क्या इनका कोई फुटकर समाधान संभव है? इसके लिए तो एक सुनिश्चित विचारधारा और उस पर आधारित ठोस कार्यक्रम चाहिए. याद रखने की बात है कि मुफ्त में बांटने की सदाव्रती धारा का गोमुख तमिलनाडु की राजनीति है. तमिल राजनीति में तमिल स्वाभिमान को बचाने, दलितों की स्थिति सुधारने और ब्राह्मणवाद तथा हिंदी का विरोध मुख्य था. लेकिन ये सभी कार्यक्रम विरोध और प्रतिपक्ष के थे. सवाल यह था कि इनके बाद मतदाता को लुभाने के लिए क्या किया जाये? तब सोना और कंगन मुफ्त देने, हर घर में टेलीविजन सेट पहुंचाने जैसे तरीके खोजे गये, जिसका सबसे ज्यादा लाभ दिवंगत नेता जयललिता का मिला. इसीलिए उन्हें अम्मा कहा जाता था.

गौर करें, तो इस तरह के सभी कार्यक्रमों से सामंतवाद की बू आती है. राजा जब खुश होता था, तब प्रजा में मिठाई बंटवाता था, लगान माफ कर देता था, खास-खास आदमियों को जागीर देता था. ऐसे ही राजा प्रजा-वत्सल कहे जाते थे. इस सिलसिले में कन्नौज के राजा हषर्वर्धन का नाम आता है. कुंभ के अवसर पर वह अपना सब कुछ दान कर देता था. यहां तक कि अपने राजसी वस्त्र भी और अपनी बहन राजश्री से ले कर कपड़े पहनता था. सवाल है कि पूर्णत: संपत्तिविहीन हो जाने के बाद उसके पास सारी संपत्ति कैसे लौट आती थी कि वह अगले कुंभ पर अपना सर्वस्व दान करने के लिए फिर हाजिर हो जाता था. जाहिर है, उसके पास जो धन पहुंचता था, वह रियाया का ही पैसा होता था. राजनीति का काम पहले लेने और फिर देने की इस परंपरा को बनाये रखने का नहीं, इस दुश्चक्र को रोकने का है.

स्वतंत्रता के बाद भारत की जनता ने इसी की आशा की थी. राजनीतिक आजादी मिल गयी थी, अब आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आजादी चाहिए था. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसका आासन भी दिया. लेकिन सर्वतोमुखी विकास का यह आासन इंदिरा गांधी तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ  एक नारे में सिमट गया-गरीबी हटाओ. लेकिन इस पर कोई चर्चा नहीं शुरू की कि गरीबी पैदा कहां से होती है, गरीबी को हटने के लिए कौन-से व्यवस्थागत प्रयास किये जा सकते हैं.  उसके बाद की राजनीति में सिर्फ  एक बार कोई ठोस मुद्दा दिखाई देता है. जब विनाथ प्रताप सिंह, रामाराव आदि ने भ्रष्टाचार के विरु द्ध अभियान शुरू किया. पर बाद में देखा गया कि भ्रष्टाचार की उनकी धारणा सिर्फ  रक्षा सौदों में कमीशनखोरी तक सीमित था. प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह ने भ्रष्टाचार को समाप्त या सीमित करने के लिए कोई व्यवस्थागत या प्रशासनिक कदम नहीं उठाया. मान लिया कि वे प्रधानमंत्री हो गये, तो भारत भ्रष्टाचार-मुक्त हो गया. यह आश्चर्य की बात है कि आजादी के बाद जो सबसे बड़ा मुद्दा बना यानी मंडल आयोग, उसकी पहले कोई चर्चा ही नहीं थी. न चुनाव के पहले, न चुनाव के बाद. मौका पड़ने पर वीपी ने अपनी आस्तीन से मंडल आयोग को इस तरह निकाला जैसे जादूगर झोले से खरगोश निकाल कर मेज पर खड़ा कर देता है. इससे यह भी पता चला कि मुद्दे होते नहीं हैं, बनाये जाते हैं.

आजाद भारत की राजनीति में तीन तरह की विचारधाराएं आई- साम्यवाद, समाजवाद और जनसंघवाद. लेकिन तीनों का ही तेजी से क्षय हुआ. लोहिया का समाजवाद उनके साथ ही चला गया. साम्यवादियों ने तीन दशक तक प. बंगाल पर राज किया और उसका सर्वनाश कर दिया. अंत में वे सिंगुर और नंदीग्राम में मारे गये. जनसंघवाद की परिणति यह हुई है कि अब वह हिंदूवाद में सिमट गया है. सर्जिकल स्ट्राइक तथा नोटबंदी से ज्यादा कुछ सोच नहीं पाया है. क्या बसपा को भी एक विचारधारा माना जा सकता है? क्यों नहीं? कांशीराम के पास भारतीय समाज को बदलने के लिए एक बड़ा कार्यक्रम था. लेकिन मायावती ने उसको सिर्फ सत्ता हासिल करने तक सीमित कर दिया. कांशीराम मानते थे कि जब तक दलित सत्ता में नहीं आते, कोई ठोस सामाजिक परिवर्तन नहीं हो सकता. इसीलिए उत्तर प्रदेश की सत्ता प्राप्त करने के लिए उन्होंने भाजपा से भी हाथ मिलाया. लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि जब दलितों की पार्टी सत्ता में आती है, तब समाज में कैसे परिवर्तन आते हैं? प्रशासन में क्या सुधार आता है और निम्न मानी जानी वाली जातियों के जीवन में क्या सुधार आता है? ऐसा लगता है कि आज के दलितवाद के लिए लेने को सब कुछ है, देने के लिए कुछ नहीं. यह वही मनोवृत्ति है, जो सवर्ण राजनीति में दिखाई देती है. फिर मुद्दे कहां से आएं. जब समग्र विकास की कोई परिकल्पना ही नहीं रही, तब मुद्दा यही बचता है-तुम मुझे सत्ता दो, मैं तुम्हें लैपटॉप दूंगा.



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