वैश्विकी : रंग दिखाने लगा ट्रंप का रंग-भेद

Last Updated 26 Feb 2017 05:19:03 AM IST

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जिस एजेंडे पर अमल कर रहे हैं, उसका दंश अप्रवासी भारतीयों को भी झेलना पड़ रहा है.


रंग दिखाने लगा ट्रंप का रंग-भेद

उन्होंने जिस तरह नस्ल के आधार पर अपना चुनाव प्रचार किया और विभाजनकारी जीत हासिल की अमेरिकी समाज में उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं. फस्र्ट अमेरिका, बी अमेरिकन, बॉय अमेरिकन जैसे विचारों से अंध राष्ट्रवाद और जेनेफोबिया जैसी प्रवृत्तियां ही उभरती हैं, जो विदेशियों के प्रति घृणा और द्वेष फैलाने का ही काम करते हैं.

यह विचार सीधे-सीधे परदेसियों के प्रति घृणा करना सिखाता है. पिछले बुधवार को अमेरिका के कंसास में भारतीय इंजीनियर श्रीनिवास कुथीमोतला की गोलीमार कर की गई हत्या इसी विचार से निकली रंगभेदी भावना से प्रेरित है. श्वेत अमेरिकी नागरिक एडम प्यूरिंटन ने गोली चलाने से पहले ‘मेरे देश से दफा हो जाओ’ जैसी नस्लीय टिप्पणी भी की थी. इसके पीछे आर्थिक संरक्षणवाद भी एक बड़ा कारण है, जिसके तहत श्वेतों को लगता है कि इन अश्वेत विदेशियों ने उनके रोजगार छीने हैं.

भारतीय नागरिक की मौत के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि श्वेत अमेरिकी समाज में भारत के प्रति उसी तरह की घृणा और द्वेष है, जैसा कि मुस्लिम देशों के नागरिकों के प्रति है. भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि देशों के जातीय समूहों को उनके रहन-सहन, वेश-भूषा के आधार पर भेद करना मुश्किल है.

शायद पहचान में गफलत के कारण ही भारतीय नागरिक को नस्ली हमले का शिकार होना पड़ा है, क्योंकि भारतीयों के प्रति उनका रुझान सकारात्मक है. इसका उदाहरण है अपने चुनाव प्रचार में हिंदुओें के एक संगठन ‘रिपब्लिकन हिंदू कोएलिशन’ में ट्रंप का भाग लेना और उनका यह संबोधन,‘मैं हिंदुओं को प्यार करता हूं.’अमेरिकी इतिहास में यह पहला मौका था,जब हिंदुओं के किसी संगठन में राष्ट्रपति उम्मीदवार ने भाग लिया था.

भारतीय के लिए यह भी सकारात्मक और अनुकूल बात है कि सीनेट में पहली बार भारतीय मूल की कमला हैरिस चुनी गई. यह तीसरी अश्वेत नागरिक हैं. वहां की प्रतिनिधिसभा में भारतीय मूल की प्रमिला जयपाल, रो खन्ना, राजा कृष्णमूर्ति और अमि बेरा का चुना जाना बताता है कि भारत के प्रति अमेरिकी रुख कितना सकारात्मक है. ये सभी डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं और राष्ट्रपति ट्रंप के आव्रजन नीति पर पाबंदी का विरोध करते हैं.

‘रिपब्लिकन हिंदू कोएलिशन’ ने अमेरिका के हिंदुओं को लामबंद किया है. वहां के समाज में धार्मिक समूह की तरह उनकी भागीदारी हो रही है. भारतीय संस्कृति, योग, अध्यात्म, संगीत एक ‘सॉफ्ट कूटनीति’ की तरह दोनों देशों के नागरिकों के बीच अपना प्रभाव डाल रहे हैं.

यह एक बड़ी वजह है जो भारतीयों को अन्य एशियाई समुदायों से अलग करता है. अमेरिकी आबादी में एक फीसद भारतीय हैं. सीनेट में भी पहली बार प्रतिनिधित्व एक फीसद हो गया है. इन सबके अलावा, अमेरिकी समाज में हिंदू-बौद्ध उस भाईचारे की परिधि में आ गये हैं, जैसा कि उनका भाईचारा प्रोटेस्टेंट, रोमन कैथोलिक और यूरोप के नागरिकों के साथ है.

यह सामान्य बात नहीं है. ऐसी घटना की पुनरावृत्ति रोकने के लिए अमेरिकी कांग्रेस में भारतीय मूल के प्रतिनिधियों को सक्रियता दिखाने की जरूरत है. वहां के शासकों से मिलकर काम करने की आवश्यकता है.

डॉ. दिलीप चौबे
लेखक


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