विश्लेषण : वहीं के वहीं हैं अन्नदाता

Last Updated 25 Feb 2017 05:54:15 AM IST

आजादी के सत्तर वर्षो के करीब सत्तर बजट में किसानों के लिए सभी सरकारों द्वारा घड़ियाली आंसू बहाए जाने का सत्य यही है कि आज भी किसान अपने कृषि उत्पाद का वाजिब मूल्य पाने को तरस रहे हैं.


विश्लेषण : वहीं के वहीं हैं अन्नदाता

सरकारों की घोषणाओं का आंशिक लाभ कतिपय किसानों को भले ही मिल पाता है, लेकिन आम किसान आज भी तबाह है. आत्महत्या और पलायन करने को मजबूर है. इस बीच, किसानों की दशा सुधारने के लिए घोषणाओं के अलावा आयोग का भी गठन किया गया परंतु आयोग की रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता रहा है. आजादी के सात दशकों की उपलब्धि यह है कि आज भी किसान की जिंदगी नहीं बदली.

पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में किसानों की जिंदगी में ‘हरित क्रांति’ के नाम पर जो बदलाव आया था, वो मुरझाने लगा है और कृषि उत्पाद का मूल्य नहीं मिलने और ऋण के बोझ से दबे होने के कारण किसान आत्महत्या करने को विवश हैं. जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के किसान ऋण बोझ के कम दबाव के कारण भले ही आत्महत्या नहीं करते हों परंतु कृषि क्षेत्र की कमजोर स्थिति के कारण उचित मजदूरी नहीं मिलने से कृषि मजदूरों का महानगरों में लंबे अरसे से पलायन जारी है. अब छोटे किसान भी अपनी खेती छोड़कर उन्हीं मजदूरों के साथ महानगरों में पलायन कर रहे हैं.

देश की मौजूदा सरकार के भी बड़े-बड़े वादे और प्रचार अवश्य मिल रहे हैं, लेकिन यह सरकार भी वादों पर नहीं ठहरी. वादा था कि हमारी सरकार ‘स्वामीनाथन आयोग’ की रिपोर्ट को लागू करके किसानों की जिंदगी में खुशहाली लाएगी और किसानों को कृषि उत्पाद का उचित मूल्य मिलेगा.

आयोग की अनुशंसा है कि कृषि उत्पाद की लागत पर पचास प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किए जाएं. जब कृषि उत्पाद का मूल्य तय करने का समय आया, किसानों की उत्पादन लागत को नजरअंदाज करते हुए सरकार द्वारा धान की कीमत महज साठ रुपये प्रति क्विंटल और गन्ना के मूल्य में दस रुपये प्रति क्विंटल वृद्धि कर वादा तोड़ा गया. आज भी उत्तर प्रदेश और अन्य प्रांतों से आलू की खेती करने वाले किसान कम कीमत से परेशान हैं. इससे पूर्व टमाटर, प्याज और सब्जी की काश्त करने वाले किसानों के साथ भी ऐसा ही हुआ था. सरकार द्वारा अनाजों के जो भी मूल्य तय किए जाते हैं, उनकी सरकारी खरीद नहीं होती. और किसान अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए औने-पौने भाव में अनाज बिचौलियों के हाथों बेच डालते हैं.

तब सरकारी खरीद की औपचारिकता पूरी की जाती है, और विलंब से खरीद का लाभ भी बिचौलियों को मिलता है. किसानों की मुख्य समस्या है कि कृषि उत्पादन की लागत घटाई जाए, किसानों के उत्पाद का लाभकारी मूल्य तय किया जाए और समय से उसकी सरकारी खरीद सुनिश्चित की जाए. लंबे वादे करने वाली सरकार इसमें असफल साबित हो रही है. किसानों की खेती के आदानों की कीमत तेजी से बढ़ती जा रही है. कृषि श्रमिकों की मजदूरी में काफी वृद्धि हो रही है. इससे कृषि लागत बढ़ती जा रही है.

सरकार द्वारा अभी-अभी पांच वर्षो में किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणा की गई परंतु जब तक किसानों की कृषि उत्पादन लागत नहीं घटती है, लागत मूल्य तय नहीं होता  है और कृषि उत्पादन की सरकारी खरीद और उसे भंडारण के लिए ठोस प्रयास नहीं किए जाते हैं, तब तक यह घोषणा भी जुमला बनकर रह जाएगी. उत्पादन लागत घटाने के लिए ब्याज मुक्त कृषि ऋण और ऋण बोझ से दबे किसानों को ऋण माफी कर कृषि उत्पादन लागत घटाने की दिशा में प्रयास आवश्यक हैं. अभी विधान सभा चुनाव में इस बात का ऐलान हो रहा है कि कृषि ऋण माफ किए जाएंगे परंतु यह ऐलान सभी किसानों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए.

इसी प्रकार उन्नत और सस्ते बीज, शत-प्रतिशत सिंचाई व्यवस्था और रासायनिक उर्वरकों की सस्ती उपलब्धता और लागत घटाने के वास्ते जैविक उर्वरकों पर निर्भरता बढ़ाने, कृषि बाजार और भंडारणों के लिए व्यवस्था जहां किसान अपना उत्पाद बेच सकें और भविष्य के लिए सुरक्षित रख सकें इसके लिए किसानों के उत्पाद खरीद के लिए  भारतीय खाद्य निगम, राज्य खाद्य निगम, सहकारी क्षेत्र के गोदामों, व्यापार मंडल के साथ बाजार समितियों को मजबूत और साधन संपन्न बनाने से ही किसानों की उत्पादन लागत घटेगी. ये संस्थाएं विभिन्न राज्यों में मृतप्राय: बनी हुई हैं.

बिहार में प्राथमिक कृषि शाखा सहयोग  समितियों की स्थिति दयनीय है. बाजार समितियों को बंद किया हुआ है. खाद्यान्न के अलावा, गन्ना किसानों का भी हाल बेहाल है. पूरे देश में गन्ना किसानों को वाजिब मूल्य नहीं मिल पा रहा है. ऊपर से हजारों करोड़ रुपया किसानों का बकाया है. इसका भी दुष्परिणाम गन्ना उत्पादन पर पड़ रहा है. पूरे देश में किसान गन्ना खेती से मुंह मोड़ रहे हैं. गन्ना के उत्पादन लागत का हिसाब कीमत के निर्धारण के समय नहीं किया जाता है.

पिछले वर्ष में नई सरकार ने मामूली वृद्धि की औपचारिकता पूरी कर ली. इसी प्रकार विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा तय किए जाने वाले परामर्शी मूल्य में भी कोई खास वृद्धि नहीं की गई. पूरे देश के किसान संगठनों द्वारा आवाज उठाये जा रहे हैं पर केंद्र व राज्य सरकारें इस पर कोई निर्णय नहीं कर पा रही हैं. इसका गन्ना उद्योग पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है. इधर, चीन मिल एसोसिएशन लगातार रंगराजन समिति की रिपोर्ट लागू करने पर जोर दे रही है.

चीनी कीमत बढ़ाने, चीनी आयात पर प्रतिबंध, उत्पादन पर सब्सिडी, ब्याज मुक्त कर्ज पा रहे हैं और अन्य सुविधा के लिए दबाव बना रहे हैं. सरकार की उदासीनता का ही परिणाम है कि देश में किसानों की आत्महत्या बढ़ रही है. छोटे किसानों का पलायन बढ़ रहा है. किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि 40 फीसद किसान खेती छोड़ चुके हैं और किसानों की भी रुचि खेती से घट रही है. भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बहुपक्षीय समस्याओं से बदहाल है. उसकी इतनी घोर उपेक्षा राष्ट्र के विकास में अवरोधक है.

आनंद किशोर
लेखक


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