मीडिया : ‘यूपी के लड़के’ की भाषा
हर चुनाव कुछ नारे देकर जाता है, जो लोगों की जुबान पर तुरंत चढ़ जाते हैं और जो चढ़ जाते हैं वे बहुत काम आते हैं.
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सन् चौदह में मोदी जी को लेकर जो नारा सबसे ज्यादा चला, वह था :‘हर हर मोदी घर घर मोदी’. निश्चय ही यह नारा किसी विज्ञापन एजेंसी की ओर से आया होगा या उस एजेंसी ने दिया होगा जो उनके चुनाव की देखभाल कर रही थी. अब शायद वही कंपनी यूपी आदि के चुनाव में कांग्रेस को सजा-संवार रही है और हो सकता है कि ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ वाले नारे को उसी कंपनी ने दिया हो. निस्संदेह वह कैची लाइन है, जो ‘सुलतान’ के गाने की तर्ज पर चलती है और जुबान पर बैठ गई है.
यों ‘मोदी-मोदी’ का भजन मोदी जी की रैलियों में अब भी जब-तब सुनाई पड़ता है, लेकिन अब उसमें वह जान नहीं दिखती जो 2014 के चुनाव के पहले के प्रचार अभियान में दिखा करती थी. मोदी जी की एक रैली में ‘मोदी-मोदी’ का भजन कम से कम एक डेढ़ मिनट तक होता रहा था. इसके बरअक्स इस बार मोदी जी की यूपी की रैलियों में यह नारा उठता भी है तो उसमें न वह उत्साह दिखता है, न वह लय. लगता है, नारा आधे दिल से लगाया जा रहा हो जिसे लगाने वाले भी बहुत नहीं हैं.
अखिलेश-राहुल की रैलियों में सामने बैठा कोई समूह यह नारा नहीं लगाता कि ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ या ये ‘यूपी के लड़के’ हैं. हां, ‘यूपी को ये साथ पसंद है’ नारे के बड़े-बड़े होर्डिग्स यूपी के तमाम शहरों में हर ‘कैची’ जगह पर लगे हैं जिसमें राहुल और अखिलेश के चित्र हैं, और यह नारा है. इन होर्डिगों में जो यूपी के दो लड़कों चेहरे जरूर दिखते हैं. ये चेहरे कुछ प्रसन्न नजर आते हैं. वह प्रसन्नता अखिलेश और राहुल के बदले हुए चेहरों से मेल खाती है. अखिलेश जब बोलते-बात करते हैं तो हिंदी के सहज-सरल लहजे और मुहावरे में बात करते हैं. राहुल इससे पहले अक्सर क्रोध में बिफर कर बातें किया करते थे. भाषण भी क्रोध से भर कर दिया करते थे. उनकी आवाज फट जाती थी और उनका असर बेकार हो जाता था. टीवी पर उनको देखकर हम बार-बार सोचा करते थे कि मंच पर जो जितना गुस्सा दिखाता है, उतना ही वह खिसियाता नजर आता है और खिसियाते आदमी को कोई पसंद नहीं करता.
अखिलेश के पास जो हिंदी-ब्रजी का मिला-जुला मुहावरा है, वह सीधे जमीन से निकला, गली-मुहल्ले की बातचीत वाला है, जिसमें वे बड़ी से बड़ी बात आसानी से और प्यार से कह देते हैं. तालियों के इंतजार में नहीं रहते, बल्कि जनता का अपने सहज वाकचातुर्य से तनाव रहित कर, आनंद देते चलते हैं. उनकी देखा-देखी शायद राहुल भी अब अपना गुस्सा कम दिखाते हैं. व्यंग्य और तंज से ज्यादा काम लेते नजर आते हैं. यूपी को यही शैली पसंद है.
यही हैं ‘यूपी के लड़के’ जो एक दूसरे के साथ इस कदर ट्यून में दिखते हैं कि एकदम पिछली प्रेस कांफ्रेंस में जब एक पत्रकार ने पूछा कि आपको मोदी से क्या शिकायत है तो नाराज होने की जगह राहुल प्यार से पत्रकार से ही पूछने लगे कि बताइए कि नोटबंदी में आपको कोई सूटबूट वाला दिखा क्या? आप ही बताइए कि तीन साल में मोदी जी ने यूपी को क्या दिया?क्या रोजगार दिया? क्या किसानों की मदद की या सिर्फ लाइन में लगवा दिया? फिर मोदी के ‘रेनकोट’ वाले कटाक्ष पर प्रति कटाक्ष किया कि मोदी जी को बाथरूम झांकने की आदत है. कटाक्ष में इतना दम था कि भाजपा प्रवक्ता नलिन कोहली को तुरंत एक चैनल पर रेनकोट की पुनव्र्याख्या में जुटना पड़ा!
वह व्यंग्य क्या जिसकी व्याख्या की जरूरत पड़े?हम जिस तरह के घमासानी दिनों में हैं, उनमें ऐसे ‘पब्लिक डिस्कोर्स’ बड़े मानीखेज होते हैं. पब्लिक खुद चाहे गली छाप बात करे, लेकिन अपने हीरोज से वैसी उम्मीद नहीं करती. उसे अपने नायक से कुछ ऊंची और प्यारी भाषा ही चाहिए. हमारे नेता, चाहे वे किसी दल के हों, अगर अपनी ही भाषा पर काबू नहीं रखेंगे और दूसरे पर हंसने के अधिक शिष्ट तरीके ईजाद नहीं करेगे तो गलीछाप भाषा ही सबकी आदर्श भाषा बन जाएगी. अगर ऐसा होगा तो ‘संवाद’ ही नष्ट हो जाएगा और वह ‘स्ट्रीट फाइट’ में बदल जाएगी क्योंकि एक दूसरे का अपमान करने या एक दूसरे को नीचा करने के इरादे से बोली गई कोई भी भाषा संवाद की दुश्मन होती है और घृणा को मूल्यवान बनाती है. इसीलिए हमने कहा कि अखिलेश ने बड़ी दूर की मार करने वाली बात कही कि गुस्सा नहीं करना चाहिए और ज्यादा इमोशनल नहीं होना चाहिए. बिना नाम लिए उन्होंने जिस तरह प्रबोध किया उसमें एक मीठी मार छिपी है और यही यूपी के इस लड़के को ‘वन अप’ करती है. चुनाव परिणाम कुछ भी हों अखिलेश-राहुल की मीठी मार बड़ी दूर तक जाने वाली है, वे एक नया पब्लिक विमर्श बनाते हैं.
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