परत-दर-परत : इस राजनीति में मर्यादा का सवाल
हालांकि कम्युनिस्ट ऐसा कहेंगे नहीं. कहना चाहते या कहना आवश्यक समझते, तो पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनाव के पहले ऐसा कह सकते थे.
![]() राजकिशोर, लेखक |
इस चुनाव में सीपीएम ने कांग्रेस के साथ मिल कर गठबंधन बनाया था. जाहिर है, गठबंधन करते ही वे कांग्रेस के पापों में शामिल हो गए या उन्होंने उसे माफ कर दिया. चुनाव हार जाने के बाद भी गठबंधन की मर्यादा यह थी कि गठबंधन बना रहता. लेकिन यह संभव नहीं था, क्योंकि सीपीएम केरल में कांग्रेस गठबंधन के विरोध में शासन कर रही है. यानी प. बंगाल का गठबंधन पूरी तरह से एक अवसरवादी गठबंधन था. एक ऐसा अवसरवाद, जो न फूला, न फला.
बहरहाल, हम कम्युनिस्ट पार्टयिों को अभी भी, उनके तमाम दोषों के बावजूद, राष्ट्र की आत्मा की वाणी समझते हैं. इस नाते यह भी मानते हैं कि मनमोहन सिंह के दस वर्ष के शासन को वे भी एक भ्रष्ट अवधि मानते होंगे. ऐसी स्थिति में अगर वे आश्चर्य प्रगट करते कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में केंद्रीय शासन घोटालों में डूबा रहा, फिर भी मनमोहन सिंह पर एक छोटा-सा दाग भी नहीं लगा, तो क्या यह गलत होता? आखिर कुछ तो बात थी कि भ्रष्टाचार की बारिश होती रही, पर उसका एक छींटा भी मनमोहन सिंह के दामन तक नहीं पहुंचा. क्या वे रेनकोट पहन कर नहा रहे थे? और अगर कम्युनिस्ट ऐसा कहते, तो कोई यह नहीं कहता कि एक पूर्व-प्रधानमंत्री की मर्यादा का हनन हो रहा है. चूंकि एक सांप्रदायिक दल के नेता ने ऐसा कह दिया, इसलिए यह गलत हो गया.
मैं नहीं समझता कि प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसा कह कर पूर्व-प्रधानमंत्री की शान में कोई गुस्ताखी की है. यदि हम यह मान लें कि मोदी की इस बात में दम नहीं है, तब भी राजनीति में ऐसी नोक-झोंक का बुरा नहीं मानना चाहिए. नि:संदेह बात को किसी दिलचस्प मुहावरे में न लपेट कर सीधे ढंग से कहा जाता, तो बेहतर था. चुटकी लेना व्यंग्य है और बेहतर है कि किसी पर व्यंग्य न किया जाए. लेकिन अगर कोई व्यंग्य कर ही देता है, तो इसका बुरा नहीं मानना चाहिए. एक पक्ष थोड़ा अशालीन होना चुन सकता है, पर दूसरा पक्ष पिनिपना कर संसद की बैठक का बहिष्कार करने लगे, यह कौन-सी बात हुई? बेहतर होता मनमोहन सिंह ने ही उत्तर में कोई और चुस्त जुमला जड़ दिया होता. जैसे, मैं तो रेनकोट पहन कर नहाता था और आप तो नंग-धड़ंग नहा रहे हैं, जिसे सारी दुनिया देख रही है.
यह जुमला कांड कुछ ऐसा नहीं है, जिस पर टिप्पणी करना आवश्यक हो. फिर भी यह महत्त्वपूर्ण है तो इसीलिए कि इससे हमें राजनीतिक पतन की श्रृंखला के खुले हुए रहस्य का पता चलता है. लेकिन मामला सिर्फ अतीत का नहीं है, भविष्य का भी. हमें हमेशा ऐसे उपायों की खोज में लगे रहना चाहिए, जिससे राजनीति की बुरी प्रवृत्तियों को रोका जा सके और अच्छी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जा सके. बहुत-से लोग सोचते हैं कि कांग्रेस या ऐसी ही दूसरी पार्टयिों की मदद से भाजपा को शिकस्त दी जा सकती है. मेरा खयाल है कि यह एक हारी हुई लड़ाई को फिर से हारने का संकल्प है. मुद्दा यह नहीं हो सकता कि भाजपा कैसे हटे, मुद्दा यह होना चाहिए कि हिंदुस्तान कैसे एक ऐसा देश बने, जो सांप्रदायिकता के विष से मुक्त हो, ‘जाति तोड़ो’ की नीति पर चले और तेजी से विकास भी करें. कौन-सा दल अच्छा है और कौन-सा बुरा, यह तय करने का आधार यही हो सकता है, कुछ और नहीं.
इसलिए अगर मोदी हों या कोई और, वह कांग्रेस के भ्रष्ट शासन की ओर हमारा ध्यान खींचता है, तो हमें उसका शुक्रगुजार ही होना चाहिए. आलोचना से किसी की मर्यादा का हनन नहीं होता, ऐसे कर्मो से होता है, जो आलोचना को आमंत्रित करते हैं. जो लोग यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि मामला सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का है, वे देश के सामने उपस्थित अन्य समस्याओं की उपेक्षा करने का दोष कर रहे हैं. मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि धर्मनिरपेक्ष दलों में कोई बुराई नहीं है. वस्तुत: सांप्रदायिक राजनीति उभरती ही तब है, जब देश दूसरे मुद्दों पर हार जाता है. तब लोगों की जेहन में यह बात उतारने की कोशिश होती है कि अब उम्मीद एक ही जगह बची है और वह है-सांप्रदायिकता. इसी को आजकल देश-प्रेम बताया जा रहा है, जिसकी व्याख्या राजस्थान में यह कह कर की जा रही है कि राणा प्रताप राष्ट्रभक्त थे और अकबर से कैसे हार सकते थे? इसी कूढ़मगजी के कारण हमारे देश के महान पंडित विदेशी शक्तियों के हाथों भारत की लगातार हार का वाजिब विश्लेषण करने में असमर्थ रहे और यह मान कर संतुष्ट बने रहे कि हमारी राजनीति हमारे हाथ में नहीं है तो क्या हुआ, हमारा धर्म तो सुरक्षित है. वे भूल गए कि राजनीतिक स्वतंत्रता भी धर्म का ही एक पहलू है.
इस समय सवाल भाजपा, कांग्रेस वगैरह का नहीं है. इनसे अब कोई आशा नहीं की जा सकती. आशा का एकमात्र केंद्र कोई हो सकता है तो वे कम्युनिस्ट पार्टयिां ही हैं. उनके पास कम से कम एक स्पष्ट और प्रगतिशील विचारधारा तो है. प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं का एक बड़ा समूह तो है. जो लोग एक बेहतर भारत चाहते हैं, उन्हें ऐसे दलों पर दबाव बनाना चाहिए कि वे देश का नेतृत्व करने की तैयारी करें. अन्यथा आगे कई दशकों तक अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है.
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