स्मरण : करिश्माई शख्सियत वाली नेता

Last Updated 07 Dec 2016 05:58:14 AM IST

ऐसे बहुत कम सौभाग्यशाली होते हैं, जिन्हें एक पूरा राज्य और देश की बड़ी आबादी ‘अम्मा’ कहकर पुकारे या ‘मां’ मानकर पूजे. किंतु यह गंगा, सरस्वती या दुर्गा की तरह देवीतुल्य मान ली गई मिथकों की पूजा नहीं है, बल्कि वर्तमान का यथार्थ है कि सिनेमा के पर्दे से संघर्ष की शुरुआत करने वाली नायिका कैसे राजनीति के माध्यम से जन-सरोकरों से जुड़कर ‘अम्मा’ कहलाने लग गई.


स्मरण : करिश्माई शख्सियत वाली नेता

अम्मा या मां ऐसा संबोधन है, जो सबसे ज्यादा आदर के भाव से अभिसिंचित है. इसीलिए भारत में अमृतमयी जल देने वाली गंगा को मां कहा गया है. जन्मदात्री मां को तो मां कहते ही हैं. भारत के राजनीतिक इतिहास में राजनेत्री तो बहुत हुई हैं. इस दृष्टि से इंदिरा गांधी बेमिसाल हैं. 1971 में पाकिस्तान से युद्ध जीतने और बांग्लादेश को नये देश के रूप में अस्तित्व में लाने के महत्त्व को स्वीकार करते हुए, अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा’ कहा था. इस दुर्गा संबोधन को शौर्य का प्रतीक तो माना गया. लेकिन मां का प्रतीक नहीं माना गया. ममता बनर्जी, मायावती, सुषमा स्वराज जैसी कई राजनेत्रियां हैं, लेकिन इनमें से किसी को भी पूरे राज्य में तो क्या अपने संसदीय या विधान सभा क्षेत्र में भी मां कहकर नहीं पुकारा जाता. हेमा मलिनी, जयाप्रदा और जया भादुड़ी ने भी फिल्मों से लेकर राजनीति में सफलता पाई, लेकिन जयललिता सा सम्मान प्राप्त नहीं कर पाई. दरअसल, ममता को छोड़ दें तो संघर्ष की वह जिजीविषा किसी में नहीं है, जो जयललिता में थी. इसी संघर्ष के आदर्श ने उनके निष्ठावान अनुयायियों की वह फौज खड़ी की जो उनमें मातृत्व की अनुभूति करते हैं.

जे. जयललिता अनुपातहीन संपत्ति रखने के मामले में दोषी पाई गई,ं जेल भी गई और फिर उन्हें चार साल की सजा भी हुई. बावजूद न केवल उनकी लोकप्रियता बरकरार है, बल्कि 2016 के विधान सभा चुनाव में इस मिथक को भी तोड़ा कि तमिलनाडु में कोई पार्टी लगातार दो बार चुनाव नहीं जीत सकती. जयललिता 1991 में पहली बार करुणानिधि जैसे परिपक्व नेता को शिकस्त देकर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं. जयललिता आयंगर ब्राrाण थीं. हिरोइन होने के कारण उनकी जनता से एक निश्चित दूरी भी थी. अवाम के बीच उनका कम ही आना-जाना था.  यहां यह भी सोचनीय पहलू है कि द्रमुक और अन्नाद्रमुक उस ब्राrाण विरोधी पेरियार रामास्वामी नायकर के विचारों से प्रेरित रहे हैं, जिसमें जाति, वर्ण और भेद की वाहक धार्मिक मान्यताओं को कोई जगह नहीं थी. बावजूद, जयललिता के हर जाति और धर्म के लोगों में गहरी पैठ रही है. जितने दिन वे स्वास्थ्य लाभ के लिए चेन्नई की अपोलो अस्पताल भर्ती रहीं, उतने दिन लगातार सभी धर्मावलंबी अपनी-अपनी पूजा-पद्धतियों के हिसाब से उनके स्वस्थ्य होने की कामना करते रहे. एक समय जयललिता के करीबी रहे सुब्रमण्यम स्वामी ही जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला 1996 में मद्रास उच्च न्यायालय ले गए थे.

स्वामी ने इस मामले का आधार उन दो शपथ-पत्रों को बनाया था, जो जयललिता ने 1991 और 1996 में विधान सभा चुनाव का नामांकन दाखिल करने के साथ नत्थी किए थे. जुलाई 1991 को प्रस्तुत हलफनामे में जयललिता ने अपनी चल-अचल संपत्ति 2.01 करोड़ रुपये घोषित की थी. किंतु पांच साल मुख्यमंत्री रहने के बाद जब 1996 के चुनाव के दौरान उन्होंने जो शपथ-पत्र नामांकन पत्र के साथ प्रस्तुत किया, उसमें अपनी दौलत 66.65 करोड़ रुपये घोषित की. यानी खुद अनुपातहीन संपत्ति की उलझन में उलझ गईं. स्वामी ने तो इस विसंगति को पकड़कर केवल न्यायालय में जनहित याचिका दायर करने का काम किया था. सीबीआई ने जब उनके ठिकानों पर छापे डाले तो उनके पास से अकूत संपत्ति और सामंती वैभव जताने वाली वस्तुएं बड़ी मात्रा में मिलीं. जयललिता फिल्मों से आईं थीं और फिल्मी कलाकारों को दक्षिण में लगभग देवी-देवताओं की तरह पूजा जाता है. इस भक्ति-भाव में नेता के तमाम दोष छिप जाते हैं. पनीर सेल्वम को ध्यान रखना होगा कि उनका संबंध किसी अलौकिक चमत्कार से नहीं है. इसलिए उन्हें राज्य और गरीब के बुनियादी हितों का जयललिता से कहीं ज्यादा ध्यान रखना होगा.

प्रमोद भार्गव
लेखक


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