समाज : नैतिकता को अनैतिकता की चुनौती
बेचैनी कम नहीं हो रही. हालात सुधरने में नहीं आ रहे. औचक नोटबंदी का हथियार जिन पर चलाया गया वे थोड़ी देर के लिए हड़बड़ा गए.
समाज : नैतिकता को अनैतिकता की चुनौती |
जिन्होंने हथियार चलाया वे कल्पना नहीं कर सके कि रायता इतना फैल जाएगा. और जो कतारों में लगे वे अभी तक कतारों से बाहर नहीं आ सके. राजनीतिक विपक्ष की बौखलाहट जारी है. वह भी नहीं समझ पा रहा कि अपनी बौखलाहट को कहां ले जाए. न भारत बंद हुआ, न कहीं कोई बगावत. मायावती ने प्यारी-न्यारी टिप्पणी की कि जब नोटबंदी ने ही भारत बंद कर रखा है, तो अलग से क्या बंद किया जाए बंगाल की घायल शेरनी दहाड़ी कि दिल्ली के सुल्तान से सल्तनत नहीं छीन लेगी, तब तक दहाड़ती रहेगी.
सल्तनत जब छिनेगी तब छिनेगी फिलवक्त सल्तनत परेशान है. परेशान है किंतु पीछे हटने को तैयार नहीं. काली दौलत के दांव-पेचों को मात देने के लिए वह नित नये प्रतिदांव चल रही है, नियम बदल रही है. मगर फैला हुआ रायता सिमटने में नहीं आ रहा.
आखिर, नरेन्द्र मोदी को क्या सूझी कि इतना विकट दांव चल मारा? क्या व्यापक अनैतिकता के विरुद्ध मोदी का यह नैतिक हस्तक्षेप है? मोदी का यही मानना है. भाजपा कह रही है कि यह देश को नैतिक तौर पर आगे बढ़ाने का कार्यक्रम है. अर्थशास्त्री इसे लेकर तथ्यगत विश्लेषण कर सकते हैं.
इस अप्रत्याशित नोटबंदी के अच्छे-बुरे परिणामों की संभावनाओं और आशंकाओं के साथ इसके समर्थन और विरोध में खड़े हो सकते हैं, लेकिन राजनीतिक विपक्ष तो सीधे-सीधे इसकी नैतिकता को ही कटघरे में खड़ा कर रहा है. छोटे-बड़े विपक्षी दल अपनी-अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति की जुबान से इसे लाखों-करोड़ों का घोटाला, चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने वाला, संगठित लूट और न जाने क्या-क्या बता रहे हैं. यह दीगर बात है कि विपक्ष की अपनी नैतिकता की जमीन बेहद थोथी-भुरभुरी है, लेकिन अपनी असंदिग्ध तौर पर संदिग्ध नैतिकता के बावजूद उसने भाजपा नीत मोदी सरकार की नैतिकता को क्रूर चुनौती दे डाली है.
नोटबंदी के विरोध में खड़े विपक्ष का एक हिस्सा ऐसा भी है, जो इसकी सैद्धांतिकता से तो सहमत है, लेकिन क्रियान्वयन से नाराज. क्रियान्वयन की भारी खामियों और आम जनता की परेशानियों ने नैतिकता के सवाल को और अधिक जटिल कर दिया है. वास्तविकता यह है कि जिस तरह एक सरकारी फैसले को जमीनी स्तर तक ठीक से पहुंचाने की प्रशासनिक और तकनीकी तैयारी पूरी नहीं थी, उसी तरह इस कदम की नैतिकता को भी लोगों के जेहन तक पहुंचाने की तैयारी भी पूरी नहीं थी. भ्रष्टाचार अनैतिक कृत्य है, भ्रष्टाचार के जरिए अवैध धन एकत्रित करना और निजी स्वाथरे की पूर्ति में लगाना अनैतिक-आपराधिक है.
इसलिए नैतिकता का तकाजा होता है कि भ्रष्टाचार पर रोक लगाई जाए, काले धन को खोदकर बाहर निकाला जाए और इसे जमा करने की अनैतिकता बरतने वालों को यथोचित तौर पर दंड दिया जाए. आम लोगों के एक हिस्से में यह सामान्य-सी नैतिकता व्याप्त थी. इसीलिए उनने घंटों कतारबद्ध रहकर और खासी परेशानियां सहकर भी सरकार के कदम का समर्थन किया. यह मानकर भी कि उनकी कठिनाइयां अल्पावधीय हैं, काले धन वालों को दंड मिलने की चाह की तुलना में नगण्य हैं. लेकिन इस सीमित नैतिक व्यवहार के सापेक्ष अनैतिक व्यवहार कहीं ज्यादा गति और व्यापकता के साथ चल रहा था.
भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध नैतिक कदम से थोड़ी देर के लिए हड़बड़ाई अनैतिक ताकतें देखते-ही-देखते पूरी शक्ति के साथ पलटवार के लिए सक्रिय हो गई. नोट बदलने की कतारें उनने कब्जा लीं, सामान्य लोगों के खाते उनकी गिरफ्त में ले लिए, विशेष रियायतों पर उनने अधिकार कर लिया, बैंक व्यवस्था में घुसपैठ कर ली, स्वर्ण-भवन-भूमि पर उनके पंजे कस गए, डॉलर-पौंड उनकी पहुंच में आ गए, अरबों-खरबों के लेन-देन पिछली तारीखों में पहुंच गए और कुल मिलाकर यह आपाद भ्रष्ट तंत्र उनकी सेवा में जुट गया. अपने नैतिक कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सरकार को बार-बार नये कदम उठाने पड़े. मगर वांछित परिणाम नहीं मिले. पुराने नोटों का काला धन तेजी से नये नोटों में तब्दील होता रहा. अंतत: सरकार को आयकर प्रस्ताव के तौर पर काले धन की अजेय अनैतिक शक्ति के आगे फिर शीश झुकाना पड़ा.
वह जानती थी कि अनैतिकता की विकराल सुरसा के आगे उसकी नैतिक शक्ति बेहद बौनी है. उसे इस सुरसा के मुंह में जाकर बाहर निकलना ही एकमात्र उपाय सूझ सका. और अनैतिकता के विरुद्ध इस नैतिक युद्ध की कीमत किसने चुकाई-सिर्फ उस व्यक्ति ने जो ईमानदारी और शांति के साथ अपने सीमित संसाधनों के सहारे जीवन जीना चाहता है. यानी देश का आम नागरिक-वह जिसके पास सिवाय मेहनत के कोई दूसरा सुरक्षा कवच नहीं है. क्यों हुआ ऐसा? असल में देश के ऊपर जो नैतिकता आरोपित की गई, देश उसके लिए तैयार नहीं था.
जिस देश के लोग अनैतिकता के माहौल में जीने के अभ्यस्त हो गए हों, हर क्षेत्र में अनैतिक व्यक्तियों और व्यवस्थाओं का वर्चस्व स्थापित होते देखते हों, हर रोज नियामक-नियंत्रक संस्थाओं की अनैतिकता के शिकार बनते हों, राजनीति की अनैतिकता को सत्ता के शिखर तक पहुंचता हुआ पाते हों, व्यापक अनैतिक आचरण के दबाव से इसके साथ समझौता करने के लिए विवश होते हों, ऐसे देश के लोग किसी ऐसे नैतिक हस्तक्षेप के लिए तैयार नहीं थे, जो उनके अनैतिकता के साथ समंजित जीवन को एकदम पटरी से उतार दे. सच्चाई यह है कि विगलित और विकृत चुनावी राजनीति ने किसी तत्व को सर्वाधिक क्षत-विक्षत किया है तो वह आम लोगों का नैतिकता-बोध ही है.
काला धन पैदा और जमा करने वाले व्यापारी हों, अधिकारी या नेता या इन्हें सुरक्षा प्रदान करने वाली व्यवस्था की भ्रष्ट प्रणालियों से जुड़े हुए लोग, कोई भी इनकी अनैतिकता पर सवाल खड़े नहीं करता-न उनका परिवार, न साथी-संगी और न बृहतर समाज. सब इनकी अनैतिक सफलता का उत्सव मनाते दिखते हैं. जहां अनैतिकता की इतनी व्यापक सत्ता स्थापित हो, वहां किसी नैतिक कदम की घुट्टी आसानी से गले नहीं उतरती. वस्तुत: इस नैतिक कदम से पूर्व जनता का नैतिक प्रबोधन जरूरी था. जनता को, जिसमें कालेधनपति भी शामिल हैं, नैतिक तौर पर जागरण जरूरी था. लेकिन ऐसा वही कर सकता था जिसकी अपनी नैतिकता पूरी तरह असंदिग्ध हो. भविष्य बनाएगा कि मोदी अपने द्वारा छेड़े गए इस नैतिक युद्ध को कैसे जीतेंगे? जीत भी पाएंगे या नहीं?
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