मीडिया : खड़े रहो इंडिया

Last Updated 04 Dec 2016 06:22:42 AM IST

किसी को क्या मालूम था कि ‘खड़े रहो इंडिया’ का जो नारा दिया गया था, उसका मतलब होगा कि एक दिन पूरा इंडिया सड़कों पर खड़ा होगा.


मीडिया : खड़े रहो इंडिया

चैनलों ने इस ‘खड़े इंडिया’ को दिन रात दिखाया.

शुरू के पांच-सात दिन नकदी के लिए खड़े करोड़ों लोगों को चैनलों ने अजूबे की तरह दिखाया. रिपोर्टर पूछते : कैसा लग रहा है? लोग : सुबह से खड़ा हूं. रिपोर्टर : परेशानी तो नहीं हो रही? वे कहते : परेशानी तो हो रही है. रिपोर्टर : नोटबंदी अच्छी बात है न? ‘क्यू’ पाकर कहते : अच्छी बात है.

रिपोर्टर : देश का फायदा होगा? तो वे तुरंत कहते : देश का फायदा होगा! एक पूर्व वित्त मंत्री ने एक चैनल पर हिसाब लगाकर बताया कि हर दिन लगभग बारह करोड़ लोग लाइनों में खड़े हो रहे हैं यानी लगभग दस फीसद भारत रोज खड़ा हो रहा है. फिर पांच लाख लोगों का निन्यानबे प्रतिशत ‘हां’ वाला सर्वे चला. ‘खड़े इंडिया’ का तीसरा चरण बीस दिन बाद शुरू हुआ. लोगों को खड़े होने की आदत पड़ चली. ‘खड़े इंडिया’ का चौथा चरण ‘पहली तारीख’ को आया तो चैनल लाइनें देखने-दिखाने दौड़े.

इस बीच, अपनी सवा सौ करोड़ महान जनता की महानता के कई पहलू नजर आए : पहली बात यह कि जनता कैमरों के आगे दिल की बात कहने की जगह ‘भली लगने वाली’ बात कहना सीख गई है! दूसरी बात कि काला धन हर आदमी के लिए एक ऐसा मिथ है कि अपने छोड़कर वह हर दूसरे के पास रखा समझता है, और इसलिए वह उसे खत्म करना चाहता है. तीसरी यह  कि बिना जटिलता में जाए वह यकीन करने लगा है कि काला धन खत्म होगा. चौथी बात ‘जन-ईष्र्या’ की है कि मैं मालामाल  होऊं न होऊं लेकिन मेरा पड़ोसी बर्बाद हो जाए! क्योंकि काला धन उसी के पास हो सकता है! पांचवीं बात यह रही कि इस ‘फोकी’ और ‘नकली समाजवादी’ क्रांति में उसकी भी एक ‘भूमिका’ है. इसलिए कुछ कष्ट तो सहा जा सकता है.

छठी बात यह कि कैमरा सामने आते ही वह अपनी ‘मजबूरी’ को ‘महानता’ में बदलना जानता है. सातवीं बात कि मीडिया पहले दिन से ही साष्टांग रहा! अगर साष्टांग न होता तो नोटबंदी वोटबंदी में बदल गई होती! आठवीं बात कि ‘कैश विमर्श’ बार-बार बदला गया! नवीं बात कि नोटबंदी विमर्श को ‘हाइपर-रीयल’ तरीके से बनाया गया.

दसवीं बात कि नोटबंदी को कैशलैस और कैशलैस को ‘डिजिटल’ के तकनीकी जादू की ओर मोड़ दिया गया. मीडिया डिजिटल क्रांति के नए उत्पाद बेचने लगा! एक डिजिटल इकनॉमी खड़ी होगई! और अंतिम बात कि मोबाइल का झुनझुना काले धन का खत्म करने वाला बना दिया गया!

तकनीक-की चकाचौंध के मारे तकनीक लोलुप आम आदमी को लगा मोबाइल नहीं कोई जादुई ताकत उसके हाथ में आने वाली है!

जिस रूप में विपक्ष मीडिया में ‘फिफ्टी फिफ्टी’ नजर आया! काले धन के विरोध में और मगर जनता की तकलीफ के साथ नजर आया! वह नोटबंदी की एकेडेमिक्स में उलझा रहा. वह खड़ी जनता के ‘आत्मछलवादी’ मनोविज्ञान को पकड़ न सका. जनता उसके लिए एक ‘किताबी’  और ‘भोली और पवित्रा’ बनी रही है, जबकि ऐसी नहीं है, जबकि जनता ‘जनता’ की तरह ही है. अनुदार, स्वार्थी और व्यवहारवादी. ‘नया अनुदारवाद’ और ‘व्यवहारवाद’ उसे अपना लगता है. वह ‘प्रैक्टीकल’, ‘प्रागमेटिस्ट’ है! ‘छलने’ और ‘छले जाने’ में उसे मजा आता है. ‘छलना’ उसके लिए एक लीला है! खड़े रहना, सहते रहना उसका मिजाज है बशत्रे उसे कुछ मिले! वह ‘लेन-देन’ में यकीन करती है. और यही है ‘खड़ी इंडिया’ की असलियत.

पिछले बीस दिनों में मीडिया की बनाई जनता इस वायदे पर यकीन करती दिखती है कि कुछ दिन बाद उसके दिन बहुरेंगे. हम मानें न मानें, ‘खड़ी इंडिया’ इंदिरा गांधी वाले  ‘गरीबी हटाओ’ के ‘मोमेंट’ में खड़ी है. इस ‘मोमेंट’ को बनाने वाले भी जानते हैं कि यह ‘मोमेंट’ एक मिथक है जो देर तक नहीं टिकना है! जब ‘गरीबी हटाओ’ नहीं टिका तो ‘काला धन हटाओ’ कब तक टिकेगा.

ध्यान रहे कि काला धन एक ‘कल्चरल आइटम’ है. उसे फिर बनना है. अपने समाज का मन ‘अंडरग्रांउड’ रमता है. वह कैमरे के आगे कभी असलियत नहीं बताता! यह उसकी फितरत है. सदियों की गरीबी, पामाली और दमन ने उसे चंट, होशियार और मक्कार बनाया है!

सबसे बड़ी समस्या यही ‘खड़ी’ जनता है. जब तक खड़े का लाभ न मिला तो निराश हो सकती है और फिर वह खड़े करने वालों की खटिया भी खड़ी कर सकती है. जब इंदिरा गांधी की कर चुकी तो फिर किसी और की क्या बिसात?

सुधीश पचौरी
लेखक


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