प्रसंगवश : धीरज न छूटे आमजन का

Last Updated 04 Dec 2016 06:16:43 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नोटबंदी का फैसला निश्चय ही स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभूतपूर्व घटना थी.


प्रसंगवश : धीरज न छूटे आमजन का

उन्होंने ने अपने इस साहसिक कदम की जरूरत और तात्पर्य को देश की जनता के सामने अपने खास अंदाज में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया था. काले धन की विकराल होती समस्या, आतंकवादियों के लिए धन की आपूर्ति तथा नकली नोटों के चलन आदि को आधार बना कर उन्होंने दृढ़ता के साथ पांच सौ और एक हजार रुपयों के नोटों को रद्द करने के फैसले को सही ठहराया था. कहना न होगा कि जिन प्रकट राष्ट्रीय उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में यह जोखिम उठाया गया हैं, वे दूरगामी प्रभाव वाले हैं.

इसी करके मोदी द्वारा टीवी पर घोषणा होते ही सामाजिक जीवन में अफरा तफरी-सी मच गई. लोग अपने पास रखे पुराने नोटों को ले कर परेशान हो चले. काला बाजारी करने वालों की तो जो हुई सो हुई इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आम आदमी असुरक्षा की आशंका के भाव से ग्रस्त हो उठा और रोजमर्रे की जिंदगी में अव्यवस्था फैलनी शुरू हो गई. नए नोट छप कर बाजार में पहुंचें इसमें भी समय लगना था. समस्या किस पैमाने की थी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जो नोट हटाए गए वे चलन में मौजूद कुल नकदी के लगभग छियासी प्रतिशत थे. इतनी बड़ी मात्रा में रुपयों को बाजार से अचानक बाहर खींच लेना बेहद मुश्किल चुनौती है. 

नोटबंदी लागू होने के बाद घटना चक्र तेजी से घूमा. नोट जमा करने, नोट बदलने आदि को लेकर एटीएम, बैंक और डाकघर में लोगों की लंबी कतारें लगनी शुरू हुई. ज्यादातर लोगों में सहनशीलता दिखी. दिक्कतें होने पर भी वे देश के लिए कुछ करने की बात सोच कर मन ही मन आस्त हैं कि कुछ अच्छा होगा. बहरहाल, धीरे-धीरे स्थिति में सुधार हो रहा है, और लोग इस नई व्यवस्था से परिचित होकर इंतजाम करने लगे. लोगों की आदतों में भी बदलाव आ रहा है. लोग खुले हाथ की जगह अब मुट्ठी बांध खर्च करने लगे हैं. इसके अभ्यास में इच्छाओं के बदले जरूरतों पर ध्यान देने लगे हैं. अब ही कैश के बदले चेक, ड्राफ्ट आदि का उपयोग बढ़ रहा है. काले धन से मुक्ति और उससे प्राप्त धन का जनहित में उपयोग करने का उनका संकल्प सराहनीय है.

साथ ही यह निर्णय देश में कम कैश वाली अर्थव्यवस्था की ओर आगे बढ़ने की दिशा में भी एक महत्त्वपूर्ण कदम है. नए युग की आवश्यकता के अनुरूप ‘डिजिटल भारत’ के सपने को साकार करने के लिए भी इस तरह का परिवर्तन जरूरी था. पर इसके लिए लोग पहले से तैयार नहीं थे और अचानक लिए गए इस बड़े फैसले से भौचक्के रह गए थे. नोटबंदी का निर्णय पूरी तरह से गोपनीय रखा गया था, और किसी को कान में तनिक भी भनक नहीं पड़ी थी. ऐसे में इसको अमलीजामा पहनने का तंत्र भी पूरी तरह से मुस्तैद नहीं हो पाया था.

अब नोटबंदी को लेकर पक्ष-विपक्ष के तर्क और आरोप समाज के सामने जटिल चुनौती पेश कर रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री और नामी-गिरामी अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह इस पूरे वाकए को ‘कानूनी लूट’ घोषित कहते नजर आ रहे हैं, तो दूसरी ओर सत्ता पक्ष द्वारा इनके बारे में काले धन की उगाही की बात की जा रही है. प्रधानमंत्री ने भाजपा सांसदों को निर्देश दिया है कि वे अपने बैंक खातों के नवम्बर आठ से इकतीस दिसम्बर के बीच हुए लेन-देन के सारे ब्योरे पार्टी अध्यक्ष को पहली जनवरी तक जरूर दे दें. राजनीति में सफाई और शुचिता की इस पहल के लिए बधाई! 

बाजार की रौनक जो अतिरेक पर चल रही थी, अब घट रही है. आदमी सिर्फ उपभोक्ता हुआ जा रहा था. बाजार उस के मानस पर चढ़ा हुआ था, और पल्रोभन देकर उसे अधिक से अधिक खरीदने को उत्साहित किया जा रहा था. लोग बिना जरूरत चीजों को खरीदने पर आमादा हो रहे थे. खरीदना या शॉपिंग  शगल होता जा रहा था. किसी चीज की आवश्यकता नहीं बल्कि आकर्षक पेशकश महत्त्वपूर्ण होने लगी थी और लोग उसमें फंसते जा रहे थे. अब आगे की राह सीधी नहीं है. अनुमान है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट सम्भावित है.

उपभोक्ताओं की मांग घटने के फलस्वरूप विज्ञापन व्यवसाय में दो हजार करोड़ रुपये का घाटा होने का अंदाजा किया जा रहा है. आशा है कि आर्थिक क्षेत्र में संतुलन और प्रगति के लिए और कदम भी उठाए जाएंगे. आम आदमी अच्छे दिन की आहट सुनने के लिए बेताब है. वह कष्ट सहने को भी तैयार है, पर यह भी कहना होगा कि उसके धैर्य की भी सीमा है.

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


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