परत-दर-परत : क्या सिनेमाघर में ही राष्ट्र बसता है?

Last Updated 04 Dec 2016 06:09:23 AM IST

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश है, इसलिए शिरोधार्य. लेकिन इसी न्यायालय ने पहले राष्ट्रीय ध्वज को मुक्त किया था, यह निर्णय देकर कि इसे कोई भी कहीं भी फहरा सकता है.


क्या सिनेमाघर में ही राष्ट्र बसता है?

इस आदेश से यह पाबंदी हट गई थी कि राष्ट्रीय ध्वज को सिर्फ 15 अगस्त, 26 जनवरी तथा अन्य तारीखों को और सिर्फ सरकारी इमारतों पर फहराया जा सकता है.

अब राष्ट्र गान को मुक्त करने की बारी थी. लेकिन आदेश यह हुआ है कि सभी सिनेमाघरों में फिल्म शुरू करने के पहले राष्ट्र गान अवश्य गाया जाए तथा उस वक्त सभी लोग खड़े हों और दरवाजे बंद कर दिए जाएं. सरकार जो भी चाहे, चाह सकती है,  प्रत्येक सरकार किसी न किसी मामले में सनकी होती है, पर न्यायिक प्रतिभा को भी देशप्रेम की भावना फैलाने के लिए इस तरह की नुस्खों का प्रयोग उचित लगेगा, यह बात गले नहीं उतरती.

अव्वल तो राष्ट्र गान के लिए सिनेमाघर का चयन कोई आकषर्क फैसला नहीं है. एक जमाने में धारणा थी कि सिनेमा लुच्चे-लफंगे देखते हैं. यह गलत धारणा तो नहीं रही, पर जैसी फिल्में बन रही हैं, उनमें लुच्चा-लफंगा चरित्रों की भरमार है. जो ऐसी फिल्में नहीं बनाता, वह जैसी फिल्में बनाता है, उनमें बलमा, सैयां, बलम, सनम, जिया, करेजवा, नयनवा, कमर, छाती, चोली, अगन, गोरिया आदि शब्दों का इतना व्यापक प्रयोग होता है कि सारी संवेदना सूख जाती है.

दावे के साथ कह सकता हूं कि आज का सिनेमाघर संस्कृति का मंदिर नहीं, बल्कि बिजनेस की मंडी है. क्या इन्हीं सिनेमा घरों में जमा दर्शक देशप्रेम के महान वाहक बनेंगे? लेकिन सरकार की मुश्किल यह है कि इतनी बड़ी संख्या में एक साथ लोग और मिलेंगे कहां. अब गृह प्रवेश, सत्यनारायण की कथा, भजन, रामचरितमानस का पाठ, क्लब, कैबरे, डांस, कव्वाली आदि के अवसरों पर राष्ट्र गान के गायन की बाध्यता तो की नहीं जा सकती. यह अटपटा और असंगत लगेगा.

स्कूलों में राष्ट्रगान की परंपरा है, पर कॉलेजों या विविद्यालयों में ऐसी मजबूरी नहीं है. एक जगह विचार क्षेत्र से बाहर है, राजनीतिक दलों की सभाएं. वहां बड़ी संख्या में ऐसे लोग जुटते हैं, जो देश के बारे में सोचते हैं. ऐसे लोगों में राष्ट्रीयता की भावना मजबूत करना बहुत जरूरी है. पर इस बारे में कानून बनाना मुश्किल है, क्योंकि किस दल की प्रतिक्रिया क्या होगी, कहना मुश्किल है.

हमारा स्वाधीनता आंदोलन राष्ट्रीयता की भावना से भरपूर था. सच तो यह है कि राष्ट्रीयता की भावना पूरे देश में फैली ही उस दौर में थी. लेकिन जब संविधान लिखा गया, तो उसमें बताया गया कि भारत राज्यों का संघ (ए यूनियन ऑफ स्टेट्स) होगा. ऐसे संघ के लिए राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान जैसे शब्द अप्रासंगिक हैं. अगर ध्वज और गान होने ही हैं, तो वे सभी राज्यों के अलग-अलग हो सकते हैं. संघ सरकार चाहे तो वह अपने लिए भी ऐसी व्यवस्था अपना सकती है.

वास्तव में जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना संविधान है, और अपना ध्वज भी. ऐसी सुविधा अगर देश के सभी राज्यों को दे दी जाए, तो किसका नुकसान होगा? लेकिन राष्ट्र? निश्चय ही यह एक संवैधानिक पहेली है. चूंकि हमने देखा कि दुनिया में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, रूस, अमेरिका, जापान जैसे राष्ट्र हैं, तो हमें भी लगा कि हमारे पास भी एक राष्ट्र होना चाहिए. भारत का संविधान भी शुरू में संघात्मक होने जा रहा था, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका का है.

अगर ऐसा संविधान बनता, तो उसमें एक साथ हिंदुस्तान और पाकिस्तान के लिए जगह निकल सकती थी. लेकिन अंतत: जो संविधान बना, वह संघीय कम और एकात्मक ज्यादा था. मैं समझता हूं कि इससे भारत के विकास में सहायता मिली है, तो बाधाएं भी कम नहीं पैदा हुई हैं. केंद्र की स्थिति सर्वशक्तिशाली पिता की तरह है, और राज्य ऐसे बेटों की तरह हैं, जिनके प्रति स्नेह आवश्यक नहीं है, पर जिन पर शासन जरूर किया जा सकता है. निश्चय ही भारत सिर्फ  एक देश या महादेश ही नहीं है, एक राष्ट्र भी है.

और इस राष्ट्र का जन्म 1947 में नहीं हुआ था, जैसा कि एक बार राजीव गांधी ने कहा था, यह दुनिया के प्राचीनतम राष्ट्रों में है, और इतिहास के थपेड़े खाते हुए एक बहुभाषायी, बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक क्षेत्र के रूप में इसका लगातार विकास हुआ है.

इसके बावजूद भारतीय सभ्यता नाम की एक चीज है और थी, हालांकि पता नहीं कि उसकी उम्र कितनी बची है, क्योंकि पश्चिमीकरण का भूत सब पर सवार है. पर यह एक भावना है, विचार है, दर्शन है  कोई कानूनी प्रत्यय नहीं, जिसके दायरे में सभी को आना ही होगा, नहीं तो उसे देशद्रोही करार दिया जाएगा. आज दुनिया के सभी देशों में भारत जितना असंतुष्ट देश कोई नहीं है. यह अपने आप से खुश नहीं है, बल्कि इतना दुखी है कि उसे अपना मजाक बना कर शांति मिलती है.

स्वयं देश की उच्चतर न्यायपालिका परेशान है. प्रधानमंत्री से सार्वजनिक रूप से प्रार्थना करती रहती है कि अपेक्षित संख्या में जज नियुक्त हों. इस वक्त द राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए सक्षम कदम नहीं उठाए गए तो राष्ट्रप्रेम की भावना अमूर्त रूप में कितने दिन बची रहेगी? अमूर्त आखिर मूर्त से ही निकलता है. देश सिनेमाघर में नहीं, खेतों, खलिहानों, कारखानों, दफ्तरों में बसता है. हो सके, तो देश को ऐसी हर जगह तक ले जाइए. नहीं तो बकवास मत कीजिए.

राजकिशोर
लेखक


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