वन-संपदा : हर हाल में बचाई जाए
वृक्षों की मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है. इनके बिना मानव जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती.
वन-संपदा : हर हाल में बचाई जाए |
असलियत यह है कि आम, नीम, पीपल, बरगद, तुलसी आदि ऐसे पेड़-पौधे हैं, जो अत्याधिक ऑक्सीजन छोड़ते हैं. कुछ औषधीय पेड़-पौधे ऐसे हैं, जो हीलिंग प्रक्रिया को तेज कर देते हैं. इनमें तुलसी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है.
वनस्पति विज्ञानियों का मानना है कि हरेक पेड़-पौधों में एक विशेष तरह की खुशबू होती है, जिसे अरोमा कहते हैं. यह खुशबू पेड़-पौधों में मौजूद तैलीय पदाथरे के कारण होती है. तुलसी, पीपल या दूसरे ऐसे पेड़-पौधे जब ऑक्सीजन छोड़ते हैं, उस समय उसके साथ ही वातावरण में यह तैलीय पदार्थ भी फैलता है. यदि लखनऊ विश्वविद्यालय की वनस्पति विज्ञानी प्रो. नीलिमा पांडे की मानें तो उस दौरान जब पौधे ऑक्सीजन छोड़ते हैं और वातावरण में तैलीय पदार्थ फैलता है, उस समय पौधों के आसपास रहने वाले लोग ऑक्सीजन के साथ इन तैलीय पदाथरे को भी ग्रहण करते हैं. इस प्रक्रिया से मानव शरीर और उसके स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है.
समझ नहीं आता कि यह सब जानने-समझने के बाद भी लोग पेड़ों के दुश्मन क्यों बने हुए हैं, जबकि देश में वृक्ष बचाने की दिशा में ‘चिपको’ व ‘अप्पिको आंदोलनों’ की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. ये आंदोलन जहां देश में वृक्षों के व्यापारिक कटान पर रोक के उदाहरण बने, वहीं विभिन्न विकास परियोजनाओं के लिए वृक्षों के कटान में कमी लाने के प्रमुख कारण भी बने. इसके बावजूद आज देश में वृक्षों-वनों की जो दयनीय स्थिति है-को लेकर हमारे पर्यावरणविद् वनस्पति विज्ञानी, वन और वन्य जीव विशेषज्ञ खासे चिंतित हैं. आज देश में वन, वृक्ष, वन्यजीव लगातार घटते चले जा रहे हैं और पर्यावरण का संकट दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है.
लेकिन सरकारें पौधरोपण करने का दावा करते नहीं थकतीं जबकि हकीकत में इसके लिए आंवटित अधिकांश राशि सरकारी मशीनरी की उदर पूर्ति में ही खप जाती है. यदि कहीं वृक्ष लगते भी हैं तो वह ऐसे जो आस-पास की जमीन की उर्वरा शक्ति को ही सोख लेते हैं. सचाई यह भी कि पौधरोपण के बाद उनके लिए पानी का इंतजाम कर पाने में सरकारें नाकाम रहती हैं और कुछ दिन-माह बाद उन वृक्षों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है. फिर उसकी तुलना प्राकृतिक वनों से नहीं की जा सकती.
पिछले महीनों में उत्तर प्रदेश सरकार ने पांच करोड़ पौधे लगाने का रिकार्ड बनाया है. मगर जरूरी यह भी है कि उन पौधों की रक्षा की जाए, हमारे नेता और अर्थशास्त्री यह कहते नहीं थकते कि तेज विकास आज की सबसे बड़ी जरूरत है. वह यह नहीं सोचते कि विकास के साथ खेती योग्य भूमि दिनों दिन किस तेजी से घटती जा रही है. सरकार ने प्राकृतिक वनों के तेजी से हो रहे उजाड़ को रोकने के लिए कानून बनाए हैं. सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भी इस मसले पर न केवल हस्तक्षेप किया बल्कि रोक के आदेश भी दिए, उसके बाद भी वनों का कटान और खनन जारी है. अकेले गुजरात का ही जायजा लें, वहां 2001 में 10586 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पेड़ गुजरात के वन क्षेत्र से बाहर थे जो 2015 में घटकर केवल 7914 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही रह गये. आंकड़ों के अनुसार बीते 14 सालों में राज्य में 25.25 फीसद पेड़ कम हो गए. आईटी सिटी के नाम से मशहूर बेंगलुरू में प्छिले 40 सालों में 60 फीसद हरियाली लुप्त हो गई.
बीते दिनों आई रपटें सबूत हैं कि आज देश के 21 फीसद भूभाग पर ही वन बचे हैं. इसमें 2 फीसद उच्च स्तरीय घने वन, 10 फीसद मध्यम स्तर के घने वन व 9 फीसद छितरे वन शामिल हैं. कोई भी राज्य ऐसा नहीं है, जहां वन संपदा में बढ़ोतरी हुई हो. लेकिन दावे आज भी जारी हैं. कारण वन और आदिवासी दोनों का व्यापारिक शक्तियों से हो रहे दोहन को हम नहीं रोक पाए हैं, जो एक दूसरे के पूरक हैं. यदि आदिवासी नहीं रहेंगे तो जंगल भी नहीं बचेंगे. क्योंकि संरक्षण आधारित आर्थिक जीवनयापन की वजह से ही आदिवासी और जंगल बचे हैं. लखनऊ स्थित किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय का अध्ययन इस कथन को प्रमाणित करता है कि जो लोग पेड़-पौधों के आसपास, यानी प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं, उनकी बीमारियों से लड़ने की क्षमता तो बढ़ती ही है, बीमार लोगों की सेहत में सुधार भी तेजी से होता है. फिर भी लोग यह नहीं सोचते कि जब वृक्ष नहीं रहेंगे तो हम जिंदा कैसे रहेंगे?
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