राजनीति : तीसरा मोर्चा की कश्मकश

Last Updated 25 Oct 2016 06:47:21 AM IST

राजनीतिक सरगर्मियों के बीच राजगीर में आयोजित जनता दलयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नमो के विरुद्ध बतौर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में परोस कर राजनीतिक गलियारों को नए मुद्दे से नवाज डाला है.


राजनीति : तीसरा मोर्चा की कश्मकश

हैरतअंगेज स्थिति तो यह है कि जदयू के शीर्ष नेतृत्व ने इस मुद्दे को तब परोसा है जब महागठबंधन के बीच सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है.

जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा तीसरे मोर्चे की पहल कर नीतीश को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने का निर्णय वैसे आधारहीन तो नहीं ही है. राष्ट्रीय गठबंधन के विरुद्ध नेतृत्व का एक संकट प्राय: प्रमुख दलों के बीच मौजूद है. समाजवादी पार्टी के भीतर नेतृत्व की टकराहट की गूंज सुनाई पड़ रही है. बहुजन समाज पार्टी का जो चरित्र है, वहां किसी अन्य का नेतृत्व स्वीकार करने की स्थिति नहीं बनती. ऐसे में नीतीश द्वारा भाजपा के विरुद्ध तीसरे मोर्चे के गठन की तस्वीर जो परोसी गई है, वह राजनीति की जरूरत तो है, मगर उसकी स्वीकृति को ले कर संकट भी है. वर्ष 2019 के लोक सभा चुनाव में महागठबंधन में रह कर चुनाव लड़ने की स्थिति की बात करें तो हिस्सेदारी में मिली 15 लोक सभा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली जदयू कितना दबाव बना पाएगी?

अब राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जदयू की अपनी ताकत का भी आकलन करें तो कहने को भले राजगीर में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 20 से भी ज्यादा राज्यों के प्रतिनिधि आए, लेकिन बिहार के बाहर से आए नेताओं में किसी की भी छवि राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता के साथ चर्चा योग्य नहीं दिखी. संभावित गठबंधन की भी बात करें तो राजद व कांग्रेस के अलावा जिस शख्सियत के जुड़ने की बात क ही जा रही है, अजित सिंह और ओमप्रकाश चौटाला का नाम सामने आते हैं. इन दोनों नेताओं की भी छवि पहले वाली नहीं रह गई है. अब इनकी ताकत भी एक वर्ग विशेष तक ही  रह गई है.

राज्य की सत्ता पर काबिज महागठबंधन की ही बात करें तो नीतीश को बतौर प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने पर कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव एवं सांसद सीपी जोशी ने साफ कहा कि प्रधानमंत्री तो राहुल गांधी ही रहेंगे. राजद के भीतर भी इसे अच्छे टेस्ट में नहीं लिया गया. राजद के वरीय नेता रघुवंश प्रसाद सिंह तो हत्थे से उखड़ गए और इस संभावना से सीधे इनकार कर डाला. इसके बावजूद  महागठबंधन धर्म का निर्वाह करते राजद इसकी स्वीकृति दे भी दे तो राजद सुप्रीमो की राजनीतिक स्थिति अब 1990 या कि 1996 वाली नहीं रह गई. क्या जंगलराज और चारा घोटाला के लगे दाग के कारण तीसरे मोर्चे को उसी मजबूती के साथ उभार पाएंगे क्या? जदयू के भीतर भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है. खासकर पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव की खामोशी और दिल्ली में नीतीश के प्रदर्शन के बाद यह महसूस किया जाने लगा है.

राजद और कांग्रेस के वगैर किसी तीसरे मोर्चे की जो स्थिति  बनती है, उसके आगे सबसे ज्यादा संकट स्वीकार्यता की भी है. जाहिर है सवाल जब तीसरे मोर्चे  का नेतृत्व का उठेगा तो सत्ता की हैसियत पर भी बात होगी. फिलहाल जो स्थिति है वहां प. बंगाल की मुख्यमंत्री स्वयं के भरोसे सरकार चला रही हैं. ओडिशा में नवीन पटनायक की स्थिति भी वही है. जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है तो वहां भी अखिलेश यादव अपने दल की बदौलत सत्ता में बने हुए हैं. एक कटु सच यह भी है कि जब तक मुलायम सिंह यादव जैसे वरीय नेता उत्तर प्रदेश की राजनीति में हैं, तब तक किसी और का नेतृत्व स्वीकारने की स्थिति नहीं है. ऐसे में सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश, बंगाल, ओडिशा की राजनीतिक ताकत को नकार कर मजबूत तीसरा मोर्चे की मजबूती की कल्पना किस स्तर पर की जा सकती है?

जदयू के रणनीतिकारों की मानें तो जदयू का एक सूत्री कार्यक्रम फिलहाल बिहार मॉडल के साथ सांप्रदायिकता के विरुद्ध मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चेहरे को तराशने का है. इस  प्रयास  में भाजपा के लव जेहाद, घरवापसी, गौरक्षा, धारा 370 जैसे भावनात्मक मुद्दे के विरुद्ध  शराबबंदी, महिला आरक्षण, बालिका साइकिल योजना, लोक शिकायत निवारण कानून व सात निश्चय जैसे निर्णय के आधार पर बिहार मॉडल को परखा जाना है. अब इसकी हद पीएम की उम्मीदवारी तक पहुंचे-न-पहंचे, सांप्रदायिकता के विरुद्ध मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चर्चा को देशव्यापी अंजाम मिल जाए तो यह भी जदयू के राजनीतिक कद में इजाफा ही माना जाएगा.

चंदन
लेखक


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