मोदी मंत्र: एक स्ट्राइक और सब चित

Last Updated 24 Oct 2016 01:49:49 PM IST

उत्तर प्रदेश में देश का सबसे बड़ा सियासी दंगल रोमांचक दौर में पहुंच गया है. चुनावी अभियान शुरू होने से पहले ही सारी पार्टियां फिलहाल बीजेपी के सामने चित दिख रही हैं.


नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां एक बार फिर अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी का दौरा कर दीपावली से पहले राज्य को बड़ा तोहफा देने जा रहे हैं. वहीं राज्य में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी पारिवारिक कलह और कांग्रेस राहुल गांधी- प्रशांत किशोर की सोच से परेशान है तो बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती जातिगत जोड़-तोड़ में व्यस्त हैं.
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी समेत राज्य के कई जिलों में दर्जनों योजनाओं को शुरू कर रहे हैं. प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश के साथ देशभर में विकास की बयार चलाकर सबका साथ सबका विकास चाहते हैं. इसी के तहत वो अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ा और वंचित तबके के लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए बिना कोई आराम किए दिन-रात एक किए हुए हैं.
 
लखनऊ की लड़ाई दिल्ली से अलहदा होने के कारण उत्तर प्रदेश एक बड़ी चुनौती की तरह दिख रहा था. लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक के बाद बीजेपी के लिए अब ये काम आसान होता दिख रहा है. पार्टी मान कर चल रही है कि लोकसभा चुनाव की तरह इससे मोदी के पक्ष में जनमत बनने लगा है और लोग फिर मोदीमय हो रहे हैं.
 
मोदीमय हवा का अहसास दूसरी पार्टियों के नेताओँ को भी है लिहाजा उनका रूख अब बीजेपी की ओर हो गया है और नेताओं का भगवा पार्टी ज्वाइन करने का सिलसिला शुरू हो गया है. जो दिग्गज नेता कभी बीजेपी को खास विचारधारा वाली पार्टी कहकर खारिज कर देते थे वो ही अब इसमें आने के लिए जुगत लगा रहे हैं.
 
उत्तर प्रदेश में दो दशकों से सपा और बीएसपी का शासन रहा है. आम लोगों के साथ राज्य के किसान अखिलेश और मायावती से नाराज हैं. मतदाता अब बदलाव और विकास चाहते हैं ऐसे में कमजोर होती कांग्रेस का सीधा फायदा बीजेपी को मिल सकता है.
 
आरजी-पीके के बीच पिस रही कांग्रेस
 
उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी और प्रशांत किशोर की कोशिशों के बाद भी कांग्रेस की हालत सही नहीं हो पा रही. सर्जिकल स्ट्राइक के बाद कांग्रेस नेतृत्व ऊहापोह में है. इसकी को देखते हुए राहुल की बतौर पार्टी अध्यक्ष ताजपोशी को भी कुछ समय के लिए टाल दिया गया है. पार्टी समझ नहीं पा रही कि बीजेपी का सामना किस तरह से करें. कार्यकर्ता हैरान है कि राज्य के लोग स्थानीय सरकार से परेशान हैं और राहुल प्रधानमंत्री को निशाना बना रहे हैं. खून की दलाली वाला बयान पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है.
 
 
प्रशांत किशोर ने जातीय समीकरण साधने के लिए ब्राह्मण चेहरे के रूप में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया लेकिन सारा कुछ तब धरा रह गया जब प्रमुख ब्राह्मण नेता और राज्य की पूर्व अध्यक्ष रीता बहुगुणा पार्टी ने पार्टी को अधर में छोड़ बीजेपी का दामन थाम लिया.
 
24 घंटे पहले तक राहुल का गुणगान करने वाली रीता ने उनके कामकाज और तौर-तरीकों पर कई सवाल खड़े कर दिए. दरअसल रीता का बयान बताता है कि राहुल को लेकर ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की सोच क्या है लेकिन पार्टी लाइन के कारण वो खुलकर बोल नहीं पाते. मतदाताओं को अब भी राहुल गांधी में सोच और समझ की कमी दिख रही है. राज्य में किसान यात्रा के दौरान खाट सभा से भी पार्टी को कोई फायदा होता नहीं दिख रहा बल्कि असंतोष और बढ़ता जा रहा है. ऐसे में अपनी राजनीति बचाने के लिए कई और कांग्रेसी नेता पार्टी से अलग हो सकते हैं.
 
बेदम 'दम' से मुश्किल में माया
 
उधर बीएसपी सुप्रीमो मायावती पूरे दम से अपने ‘दम’ फैक्टर यानी दलित-मुस्लिम गठजोड़ को अमल में लाने की जीतोड़ कोशिश कर रही हैं. पूर्व मुख्यमंत्री मुस्लिम मतदाताओं को यह समझाने में लगी हैं कि सपा को वोट देना इसे बर्बाद करना है लेकिन कई बड़े नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने से इनका वोटबैंक भी छिटका है. यूपी में सत्ता की अब तक की सबसे बड़ी दावेदार बीएसपी के बड़े मैनेजर रहे स्वामी प्रसाद मौर्या पहले से ही पाला बदल कर मोदी मोदी कर रहे हैं.
 
 
परि 'वार' से परेशान मुलायम
 
इसके साथ ही राज्य में सबसे अहम पार्टी टूट के कगार पर खड़ी है. सिल्वर जुबली मनाने जा रही समाजवादी पार्टी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल सिंह यादव के बीच की लड़ाई परिवार की आंतरिक कलह से काफी आगे जा चुकी है.
 
भले ही युवा मुख्यमंत्री अखिलेश ने विकास के रास्ते पर चल अपनी छाप छोड़ी है और दागी छवि वाले नेताओं के पार्टी में लाने का विरोध कर स्वच्छ राजनीति का भरोसा दिलाया है लेकिन परिवार के लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से पार्टी टूट के कगार पर है. 
 
 
बेदाग अखिलेश को जहां रामगोपाल यादव और आजम खान का साथ मिल रहा है वहीं पार्टी के अन्य बुजुर्ग नेता मुलायम और शिवपाल यादव के साथ दिख रहे हैं. जिनकी पार्टी संगठन पर मजबूत पकड़ है.
 
ऐसे में लोकसभा चुनाव के बाद आगामी विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी एडवांटेज मोड में दिख रही है. पार्टी एक बार फिर दो साल पहले वाली ताजगी और स्फूर्ति महसूस करने लगी है. बीजेपी नेताओं के बयान और उनकी राजनीतिक गतिविधियां इस बात की गवाह हैं.
 
कभी मुजफ्फरनगर, कभी दादरी तो कभी कैराना के नाम पर ध्रुवीकरण का इल्जाम झेलने वाले बीजेपी के रणनीतिकारों ने यूपी की चुनावी बिसात बिछने से काफी पहले ही सर्जिकल स्ट्राइक बडा दांव चला है. बीजेपी के विरोधी भले ही लोगों को समझाते रहें कि  उसे सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं करना चाहिए– लेकिन वो ये क्यों नहीं समझने को तैयार हैं कि बीजेपी ये सब राजनीति के लिए नहीं तो क्या मोक्ष प्राप्त करने के लिए कर रही है. सर्जिकल स्ट्राइक की तो गई सीमापार लेकिन उसका असर लखनऊ तक देखा जा रहा है जहां दौड़ में चल रही सारी पार्टियां बीजेपी के सामने फिलहाल चित दिख रही हैं. 

हितेंद्र गुप्ता


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