समाज : उत्तर प्रदेश के अनुत्तरित प्रश्न

Last Updated 23 Oct 2016 06:02:40 AM IST

उत्तर प्रदेश में चुनावी नगाड़ों का शोर लगातार तेज हो रहा है. सभी बड़ी-छोटी पार्टियों के रथ अपने-अपने सवार और सारथियों को लेकर युद्ध क्षेत्र की ओर अग्रसर हो गए हैं.


समाज : उत्तर प्रदेश के अनुत्तरित प्रश्न

सभी पार्टियां अपनी-अपनी नीतियों की आत्मश्लाघी सर्वश्रेष्ठता, अपने-अपने कार्यों की लोकलुभावन सुफलता और अपने-अपने शीर्ष नेताओं की थोथी शौर्य गाथाओं को लेकर मतदाता को समझाने, रिझाने, बहलाने या बरगलाने के पारंपरिक ‘लोकतांत्रिक’ अनुष्ठान को पूरे तामझाम के साथ पूरा करने में जुट गई हैं.

मुख्य किरदारी चार पार्टियां ही निभा रही हैं-सोनिया-राहुल की थकती-हांफती कांग्रेस, मायावती की गजगामिनी बसपा, मोदी-शाह की हुंकारती भाजपा और मुलायम-अखिलेश की सत्तारूढ़ मगर कलहकवलित सपा. पश्चिमी, पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश के जो अन्य छोटे-मोटे राजनीतिक दल हैं, वे या तो अभी से किसी न किसी सत्ता संभावी दल से सांठगांठ करने की जुगाड़ में हैं, या फिर चुनाव वाद की सांठगांठ के लिए अपने तई ज्यादा से ज्यादा सीटें कबाड़ लेने की जुगत में. उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव की पूर्वपीठिका में सब कुछ अब तक स्थापित हो चुकीं चुनावी संस्कृति, परिपाटियों और रस्म-रिवाजों के अनुसार ही हो रहा है. इसमें कुछ भी नया, उत्तेजक, ज्यादा उम्मीद जगाने वाला या ज्यादा निराश करने वाला नहीं है. सभी नेता वैसी ही बड़ी-बड़ी हांक रहे हैं जैसी वे चुनाव आते ही हांकने लगते हैं, वैसे ही अपने प्रतिपक्षियों को गरिया रहे हैं जैसे कि गरियाते हैं, और वैसे ही अपनी उपलब्धियों को गिना रहे हैं जैसे कि गिनाते रहते हैं. अमित शाह ने अपनी सरकार तो मायावती ने अपनी सरकार आने का दावा किया. हैरानी यह कि राहुल के सिपहसालार भी अपनी सरकार की घोषणा कर रहे हैं. मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पुनर्वापसी का दावा बार-बार दोहरा रहे हैं.

चुनाव से पहले जीत के जो गगनचुंबी दावे किए जाते हैं, वे सबके द्वारा किए  जा रहे हैं. जिन नेताओं को अपनी पार्टी रास नहीं आ रही है, वे दूसरी पार्टियों में जगह तलाश रहे हैं. कुछ नेता अपनी पार्टियों को बल देने के लिए दूसरी पार्टियों में सेंध लगा रहे हैं. भिन्न-भिन्न मतदाता समूहों के ठेकेदारों को दूसरी पार्टियों से तोड़कर अपनी पार्टी में कैसे लाया जाएं इसकी जोड़-जुगत लगा रहे हैं. अब जाहिर है कि ये मतदाता समूह न किसी आदर्श के मारे हैं, न किसी सिद्धांत के. ये विभिन्न जातियों के आधार पर गठित हैं, या फिर संप्रदाय के आधार पर. बसपा का अपना ठोस जनाधार मायावती का निजी जाति समूह है,  और सपा का ठोस जनाधार मुलायम सिंह का अपना जाति समूह है. दोनों को ही पक्का मुस्लिम समर्थन चाहिए. इसलिए दोनों की ही भरपूर कोशिश मुसलमानों को एकमुश्त अपने पक्ष में खड़ा करने की रहती है. कांग्रेस बामनी हो रही है, लेकिन सिर्फ बामनवाद उसे कहीं नहीं ले जा सकता. इसलिए उसे दलित भी चाहिए, मुसलमान भी. और सवर्ण भी चाहिए. लेकिन ये मतदाता समूह उससे जुड़ेंगे जिससे कुछ हासिल हो. भाजपा जानती है कि मुसलमान उसके साथ नहीं आएंगे इसलिए वह विभिन्न जाति समूहों को, चाहे वे सवर्ण समूह हों या दलित, फिर चाहे वे राम के नाम पर साथ आएं या अंबेडकर के नाम पर, साधने के लिए जी-जोड़ कोशिश कर रही है.
उप्र में वर्षो से यही हो रहा है. इसलिए प्रदेश की जनता के लिए आगामी चुनाव उत्तेजनाविहीन हैं. थोड़ी-सी सनसनी सत्तारूढ़ परिवार की आंतरिक कलह ने जरूर पैदा कर दी है, और लोगों की उत्सुकता इस बात को लेकर जरूर है कि अंतत: किसका पलड़ा भारी रहेगा-चाचा का या भतीजे का या किसी ‘बाहरी व्यक्ति’ का. उसकी उत्सुकता इसे लेकर भी होगी कि आखिर, इस कलह की परिणति क्या होगी-सपा की हार में या जीत में. बाकी काम अपना मीडिया कर रहा है.

वह उत्तर प्रदेश की अपनी जनता को बता रहा है कि कौन-सी पार्टी की कौन-सी कोशिशें उसके पक्ष में जा रही हैं, किसे किस बात का नफा हो रहा है, और किस बात का नुकसान, भाजपा दलितों को लुभाने के क्या कारनामे कर रही है, बसपा और कांग्रेस से कौन-कौन से बड़े नेता अपनी-अपनी पार्टियों से पल्ला झाड़ भाजपा की झोली में जा गिरे हैं, मुस्लिम मतदाता सपा के पक्ष में जा रहे हैं, या बसपा के, अखिलेश के विकास कार्य मतदाताओं को कितना प्रभावित कर रहे हैं, मायावती की सोशल इंजीनियरिंग इस बार क्या गुल खिलाने जा रही है, अजित सिंह की पार्टी किसके साथ गठबंधन कर सकती है, कौन-सा बाहुबली किस पार्टी के खोल में घुसने की कोशिश कर रहा है, किस जाति और सांप्रदायिक समूह के किसके साथ जुड़ जाने से कौन-सा नया समीकरण बन सकता है, भाजपा सरकार की संभावनाएं क्यों और कैसे बन सकती हैं, सर्जिकल सट्राइक का फायदा भाजपा कैसे उठा रही है, आदि, आदि. नकली चिंताओं, नकली वादों, नकली आश्वासनों और विकास की नकली लैपटॉपिया अवधारणाओं और पारस्परिक नफरतों से निर्मित चुनाव की इस पूर्वपीठिका में से वह सब नदारद है, जिसे वस्तुत: पूर्ण प्रखरता के साथ मौजूद होना चाहिए. व्यक्ति और परिवार के ब्रांडों से चलने वाली राजनीति में प्रविष्ट हुई व्यापक लंपटता और तत्संबंधित गैर-जिम्मेदार गिरावट के प्रश्न; धार्मिक नफरतों, कट्टरताओं और उनसे पैदा समाज विरोधी धार्मिक व्यवहारों और आडंबरों के प्रश्न; अपनी जातियों के नाम पर उभरते नव-क्षत्रपों के सामंती आचरण के प्रश्न; संपूर्ण आर्थिक व्यवहार के दूध में गंदले पानी की तरह घुले-मिले भ्रष्टाचार के प्रश्न; निरंतर भ्रष्ट होती हुई अफसरशाही की निरंतर गैर-जिम्मेदारी के प्रश्न; निरंतर बढ़ती आर्थिक विषमता के प्रश्न; चहुंमुखी आपराधिकता के कारण असुरक्षित होते जन-जीवन के प्रश्न; शिक्षा की सार्थकता के प्रश्न; डेंगू और चिकनगुनिया जैसी महामारियों से ग्रस्त लचर स्वास्थ्य सेवा के प्रश्न; निरंतर भ्रष्ट, बेईमान, अनुशासनविहीन होते नागरिकों में स्वस्थ नागरिकताबोध जगाने के प्रश्न, जैसे मानवीय विकास से सीधे-सीधे जुड़े प्रश्न मौजूदा परिदृश्य से पूरी तरह गायब हैं. और अगर इन पर चर्चा हो भी रही है, तो सिर्फ नकली और मुखौटिया है.

यह परिदृश्य जिस सार्थक और संपूर्ण बदलाव की मांग कर रहा है, उसे पूरा करने के लिए प्रदेश कब अंगड़ाई लेगा, किसी को नहीं मालूम? प्रदेश की युवा परिवर्तनकामी चेतना जाति, धर्म-मजहब और अपने क्षुद्र स्वाथरे से ऊपर उठकर इन प्रश्नों को कब अपनी चेतना का हिस्सा बनाकर नई राजनीति की शुरुआत करेगी, यह अभी अनुत्तरित है.

विभांशु दिव्याल
वरिष्ठ पत्रकार


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