परत-दर-परत : एक ही तलाक क्या काफी नहीं है

Last Updated 23 Oct 2016 05:55:38 AM IST

तीन तलाक की चर्चा के बीच जो बात सामने नहीं आ पाई है, वह यह है कि अलग होने के लिए तीन बार तलाक कहना जरूरी क्यों है.


परत-दर-परत : एक ही तलाक क्या काफी नहीं है

गैर-मुसलमानों के लिए एक ही बार तलाक कहना काफी होता है. लेकिन सिर्फ  पति या पत्नी से ऐसा कहना काफी नहीं होता. अदालत में जा कर ऐसा कहना पड़ता है और अदालत को बताना जरूरी होता है कि ऐसा क्यों कहा जा रहा है. अदालत को उचित लगता है तो वह तलाक दे देती है, जिसके बाद पति-पत्नी दोनों स्वतंत्र हो जाते हैं. लेकिन सवाल है कि जब शादी के बीच अदालत नहीं आती है, तब तलाक के मामले में दखल देने का उसे क्या हक है? दाल-भात में मूसलचंद बनना कोई अच्छी बात नहीं होती.

अंग्रेजों के आने के पहले ऐसा नहीं था. अपनी पत्नी से तलाक लेने के लिए किसी को अदालत जाना नहीं पड़ता था. कह भर दिया और वह काफी था. पर हमारे उदार समाज पर अंग्रेजों ने अपना रूढ़िवादी कानून थोप दिया कि शादी तो आप किसी से भी अपनी मर्जी से कर सकते हैं, पर तलाक अपनी मर्जी से नहीं ले सकते. हमारे कानून में जो सब से बड़ी खामी थी, वह यह थी कि एक बार कहने से ही तलाक देने का अधिकार सिर्फ  पुरु षों को था, स्त्रियों को नहीं. बल्कि स्त्रियों को तो तलाक लेने का अधिकार ही नहीं था. जिससे शादी हो गई, उससे जीवन भर का संबंध हो गया. शादी पुरु षों के लिए बागीचा थी, स्त्रियों के लिए जेल थी. जिससे शादी हो गई, उसे न छोड़ा जा सकता था, न उसकी आज्ञा की अवहेलना की जा सकती थी. इससे यह कानून विभेदकारी बन गया था. समानता के आधार पर, स्त्रियों को भी यह अधिकार होना चाहिए था कि वे न केवल तलाक दे सकें, बल्कि एक बार तलाक कह कर संबंध विच्छेद कर सकें. तब स्त्री-पुरुष संबंधों में कुछ लोकतंत्र आ सकता था और स्त्री पुरु ष की बांदी नहीं होती. इस्लाम के तीन तलाक में भी यही बुराई है, या कहिए कमी है.

स्त्रियों को न केवल तलाक देने का अधिकार नहीं है, बल्कि तीन तलाक के बारे में तो वे सोच ही नहीं सकतीं. मांगने से ही तलाक मिलने का विचार जॉर्ज बरनार्ड शॉ का था. कहने की जरूरत नहीं कि यह एक क्रांतिकारी विचार था. शॉ समाजवादी थे, और हर तरह की समानता के समर्थक थे. समानता के साथ जब तक स्वतंत्रता का संबंध न हो, वह निर्थक होता है. दो स्वतंत्र व्यक्ति ही समानता का अनुभव कर सकते हैं, नहीं तो सामाजिक और कानूनी समानता होते हुए भी वे उसका आनंद नहीं ले सकते. चूंकि स्त्री-पुरु ष संबंध में न स्वतंत्रता थी, न समानता. इसलिए शॉ की निगाह में प्रत्येक विवाह वेश्यावृत्ति की तरह था. आज भी बहुत-से लोगों की निगाह में यह वेश्यावृत्ति है, क्योंकि विवाह होते ही स्त्री अपने शरीर पर अपना अधिकार खो देती है. विवाह  में बलात्कार नाम की कोई चीज नहीं होती. सब कुछ कानूनी रूप से मान्य है. नहीं तो इसकी सजा पुरु ष को नहीं, स्त्री को मिलेगी. लेकिन विवाह की गुलामी स्त्री और पुरु ष, दोनों के लिए है. दोनों को ही विवाह से मुक्ति पाने के लिए अदालत की शरण में जाना होगा. मैं बरनार्ड शॉ का भक्त हूं, और विवाह को स्वतंत्र और समानता-आधारित संबंध बनाने का समर्थक हूं. जानना चाहता हूं कि विवाह करने पर कोई शर्त लागू नहीं होती यानी कोई भी दो बालिग व्यक्ति विवाह कर सकते हैं, तब विवाह से बाहर आने पर कोई शर्त या नियम क्यों लागू होना चाहिए? चाहने भर से तलाक क्यों नहीं हो जाना चाहिए?

जब विवाह के लिए कारण नहीं पूछा जाता, तब विवाह के लिए स्पष्टीकरण देना क्यों जरूरी होना चाहिए? जिन्होंने विवाह किया है, अपनी किस्मत वे खुद तय करें. आज की भाषा में कहा जाए तो यह मानव अधिकार का मामला है. किसी को किसी के साथ रहने को बाध्य नहीं किया जा सकता. यह व्यक्ति पर समाज का अत्याचार का मामला है. इससे स्त्री को ही नहीं, पुरुष को भी मुक्त कराना होगा. इस्लाम में मेहर की प्रथा है. शादी के समय ही एक निश्चित रकम तय कर दी जाती है. पुरु ष जब तलाक देता है, तब उसे मेहर की यह रकम देनी पड़ती है. यह प्रथा विवाह के बारे में बरनार्ड शॉ के विचारों की पुष्टि करती है. जब तक जी चाहा आनंद लिया, मन भर गया तब मेहर की रकम दे कर विदा कर दिया. मजे की बात यह है कि यह अधिकार भी सिर्फ पुरु षों को था. स्त्रियों के लिए मेहर की रकम तय नहीं की जाती थी, जिसका भुगतान कर वे अपने अनचाहे व्यक्ति से मुक्त हो सकें. हिंदुओं में तो तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने की जिम्मदारी है, पर मुसलमानों में यह भी नहीं है. शाह बानो के मुकदमे में इस नियम को सुप्रीम  कोर्ट ने खत्म कर दिया था. लेकिन राजीव गांधी की सरकार ने एक बहुत बड़ा निर्णय लेकर पूर्व स्थिति बहाल कर दी थी. इस बात की आज भी आलोचना होती है. सिर्फ  तीन तलाक को खत्म करने से क्या होगा, अगर मुस्लिम स्त्रियों के दूसरे अधिकारों की भी फिक्र न की जाए. मेरा मानना है कि यह शुद्ध रूप से राजनीतिक अवसरवाद है. इसके पीछे कोई उच्च विचार नहीं, बल्कि एक सांप्रदायिक उकसाव है. वस्तुत: विवाह को एक कठिन और दुर्भर संबंध बनाने के कारण ही विवाह संस्था का क्षय हो रहा है. जो एक बार विवाह की उच्छृंखलता से गुजर लेता है, दुबारा इस संबंध में फंसना नहीं चाह सकता. एक संस्था के रूप में विवाह को बचाना है, तो इसे सरल, स्वतंत्र और स्त्री-पुरु ष की समानता पर आधारित बनाना होगा. नहीं तो ऊपरी तौर पर सफल दिखाई पड़ते हुए भी यह मानवता के गले की फांस बना रहेगा.

राजकिशोर
लेखक


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