पर्यटन दिवस : सार्थक करें पर्यटन का ऋषिसूत्र

Last Updated 27 Sep 2016 04:48:04 AM IST

चरैवेति-चरैवेति’. चलते रहो-चलते रहो! भारतीय संस्कृति का यह ऋषिसूत्र गति, प्रगति व विकास के माध्यम से हमारे राष्ट्रीय, सामाजिक, सामूहिक व व्यक्तिगत जीवन की पहचान बनता है.


सार्थक करें पर्यटन का ऋषिसूत्र

वस्तुत: संस्कृति का संवाहक, संचारक व संप्रेषक है पर्यटन. यह ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा हम औरों की संस्कृति व संस्कारों से परिचित होते हैं. अपनी संस्कृति-संस्कार दूसरों तक पहुंचाते हैं. यदि इस पर गंभीरता से अमल किया जाए तो पर्यटन हमारी संस्कृति व संस्कारों को विकसित करने की पाठशाला बन सकता है, जबकि सिर्फ मौज-मस्ती की मानसिकता से किया गया पर्यटन पर्यावरण को दूषित करने में बड़ी भूमिका निभाता है. इस बात पर गंभीरता से अमल कर कुछ नीति-नियमों को अमली जामा पहनाया जा सके तो पर्यटन की सार्थक परिभाषा गढ़ी जा सकती है.

सुप्रसिद्ध लेखक जॉन नैसविट ने अपनी पुस्तक ‘ग्लोबल पैराडक्स’ में उल्लेख किया है कि 21वीं सदी में पर्यटन वि का सबसे बड़ा उद्योग होगा. आज नैसविट की बात की सच्चाई सार्वजनिक है. भारत हो या कोई और देश, सब जगह यह सच साकार हो रहा है. हर जगह पर्यटन सुविधाओं की विस्तृत जानकारी प्रिंट, टीवी, इंटरनेट के माध्यम से सहज ही उपलब्ध है. आंकड़ों के गणित से विदेशी पर्यटकों एवं रुपयों का संबंध साफ उजागर होता है लेकिन इससे यह पता नहीं चलता कि इन पर्यटकों में से कितनों को भारत के राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक महत्त्व का पता चला. कितनों ने इसे जानने व सीखने में अभिरुचि दिखाई.

प्राचीन इतिहास को पलटें तो तीर्थाटन व देशाटन के नाम से विख्यात रहे इस देश में पर्यटन का लक्ष्य सदा से कला-सौंदर्य के विकास के साथ ज्ञानार्जन व आध्यात्मिक समृद्धि के लिए किया जाता रहा है. अरब व यूनान देशों में दर्शन व गणित का ज्ञान वहां के पर्यटक ही भारतवर्ष से लेकर गए थे. चीनी पर्यटक ह्वेनसांग व फाह्यान के बारे में तो प्राय: सभी जानते होंगे जिन्होंने भारतीय ज्ञान व संस्कृति की अनगिनत बातें यहां से सीखकर अपने देशवासियों को बताई-सिखाई. इसी तरह भारत से विदेश जाने वाले कुमारजीव, कौडिन्य एवं बौद्ध धर्मानुयायियों ने अपने आचरण व ज्ञान से वहां के निवासियों को लाभान्वित किया. अतीत के इस सच का पुनमरूल्यांकन करना व इसका नवीनीकरण करना आज की सबसे बड़ी जरूरत है.

आंकड़े कहते हैं बाहर से आने वाले पर्यटक यहां औसतन पर 10 से 29 दिन तक ठहरते हैं. इतने समय में उन्हें देश की राष्ट्रीय विशेषताओं के बारे में बताया-सिखाया जा सकता है. यह दायित्व केवल सरकारी ढांचे से जुड़े लोगों का नहीं है. सारी अला-बला सरकार के माथे मढ़कर स्वयं सभी दायित्वों से मुक्त अनुभव करना, एक तरह से राष्ट्रीय अपराध है; जिसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं. पर्यटन से जुड़े सरकारी ढांचे के साथ संस्कृति व संस्कार का सच बताना-सिखाना हम सभी का दायित्व है. इनमें पर्यटन उद्योग से जुड़े लोग हों, होटल व्यवसायी हों, दुकानदार, परिवहन व्यवस्था से जुड़े लोग हों या फिर कलाकर व शिल्पकार. सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक संस्थाओं को भी इस विधा से जुड़कर अग्रणी भूमिका निभाने की जरूरत है. पर्यटन उद्योग धनार्जन का कारगर माध्यम है परंतु भारतीय संस्कृति के जीवन मू्ल्य सबसे बढ़कर हैं, क्योंकि इनके न रहने पर हम आखिर अपनी किन विशेषताओं के आधार पर देशी-विदेशी सैलानियों को अपनी ओर आकषिर्त कर पाएंगे? 

इसके लिए हमें पर्यटन उद्योग को संस्कृति एवं संस्कारों की पाठशाला बनाने पर गहराई से विचार करना  होगा. यह कर्तव्य राष्ट्रीय व प्रांतीय सरकारों के साथ  प्रत्येक भारतवासी का भी होना चाहिए. आखिर, जो पर्यटक हमारे देश में, हमारे प्रांत में अपना बहुत सारा धन, समय व श्रम खर्च करके आते हैं, उनके मन में निश्चित ही बहुत कुछ देखने के साथ-साथ बहुत कुछ जानने और सीखने की भी लालसा होती है. उनकी देखने की लालसा तो जैसे-तैसे पूरी हो जाती है परंतु जानने और सीखने की लालसा जस की तस रह जाती है. इसलिए यह सुनिश्चित करना बहु जरूरी है कि हम अन्तरप्रान्तीय और बाहर से आने वाले पर्यटकों को अपने प्रांत-देश की कौन सी अनूठी बात बताएंगे-सिखाएंगे? यदि हम सब मिलकर उनकी यह इच्छा पूरी कर सकें, पर्यटकों से अपनी आर्थिक संपन्नता बढ़ाने के बदले उन्हें मान-संस्कृति व संस्कार से समृद्ध कर सकें तो समझना चाहिए कि यकीनन हम अपना राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कर्तव्य सही रूप में निभा सके हैं.

पूनम नेगी
लेखक


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