दुष्परिणाम की फसल
इन दिनों सरसों की जीएम (जेनेटिकली मोडीफाइड) या जेनेरिक रूप से संवर्धित किस्म की खेती को स्वीकृति दिलवाने के प्रयास बहुत तेज हो रहे हैं.
जीएम सरसों दुष्परिणाम की फसल. |
दूसरी ओर अनेक किसान संगठनों, पर्यावरण व खाद्य सुरक्षा संगठनों और वैज्ञानिकों ने इस ट्रांसजेनिक मस्टर्ड हाईब्रिड डी एम एच-11 किस्म का जमकर विरोध किया है और इसके व्यापक दुष्परिणामों के विरुद्ध सरकार को बहुत विस्तृत ज्ञापन सौंपे हैं. यह बहस अब उतने ही संवेदनशील दौर में पहुंच गई है, जितनी कि पहले बीटी बैंगन की बहस पहुंची थी. उस समय विश्व की एक अति शक्तिशाली व साधन-संपन्न कंपनी ने न केवल अपनी पूरी ताकत बीटी बैंगन को स्वीकृति दिलवाने में लगा दी थी बल्कि वि के कुछ सबसे शक्तिशाली देशों के शीर्ष के नेताओं से अपने पक्ष में पैरवी भी करवा दी थी. तब की यूपीए सरकार में भी इन तत्वों के हितैषी मौजूद थे.
तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को इसका श्रेय है कि दबाव में आए बिना उन्होंने देश भर में सरकारी मान्यता प्राप्त जन-सुनवाइयों का आयोजन कराया, जिनमें खुले मंच पर वैज्ञानिकों, किसान संगठनों, पर्यावरण व जन-विज्ञान संस्थानों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने विचार प्रकट किए. इसके अतिरिक्त, अनेक स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा भेजी गई राय पर भी ध्यान दिया गया. इस व्यापक विमर्श से जो महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हुए, उनके आधार पर बीटी बैंगन पर रोक लगा दी गई. अब इस समय फिर यह जरूरत है कि व्यापक व खुले विमर्श द्वारा सरसों जैसी महत्त्वपूर्ण फसल में जीएम किस्मों व तकनीकों के खतरों के प्रवेश पर जानकारी व्यापक स्तर पर उपलब्ध हो.
पर इस तरह के किसी विमर्श या आयोजन सरकार ने नहीं किया है. दूसरी ओर, निर्णय लेने की प्रक्रिया पर बड़े सवाल उठे हैं कि जिस जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेजल कमेटी ने इस बारे में अहम निर्णय लेने हैं उनमें ऐसे वैज्ञानिकों को जगह दे दी गई है, जो स्वयं जीएम फसलों के विकास से और जीएम लॉबी के प्रयासों से जुड़े रहे हैं. ऐसे सदस्यों से स्वतंत्र व निष्पक्ष राय कैसे मिल सकती है? किसान संगठन प्राय: जीएम फसल के विरोध में आगे आए हैं, पर अब इन संगठनों का एक हिस्सा ऐसा भी है जो गुपचुप तरीके से बहुराष्ट्रीय खाद्य कंपनियों से सांठगांठ करना चाहते हैं. हालांकि जीएम सरसों के बारे में कहा जा रहा है कि इसे तो दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े कुछ वैज्ञानिकों ने विकसित किया है, पर यह पक्ष-विपक्ष दोनों को भली-भांति पता है कि असली खेल तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जुड़े हितों के प्रसार का है.
जीएम तकनीक विश्व की पांच-छह प्रमुख कंपनियों में केंद्रित है. अत: इनके प्रसार का फैसला या इनपर रोक न लगाने का फैसला तो अंत में उनको ही सबसे अधिक लाभ पहुंचाएगा. दरअसल, पहले बहुराष्ट्रीय कंपनियों व उनकी सहयोगी कंपनियों ने अपने द्वारा विकसित फसलों की किस्मों को ही फैलाने का प्रयास किया, पर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रिकार्ड से जुड़े अत्यधिक मुनाफे, खेती किसानी के नियंत्रण व भ्रष्टाचार के कारण लोग भड़क जाते थे. अत: अब एक दूसरा तरीका अपनाया जा रहा है कि अन्य वैज्ञानिकों द्वारा विकसित जीएम फसलों को पहले प्रवेश दिलवा दिया जाए. अत: इस समय मुद्दा केवल जीएम सरसों का नहीं है, बल्कि मुद्दा बहुत व्यापक है क्योंकि एक बार जीएम सरसों को प्रवेश मिल गया तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बहुत सी जीएम खाद्य फसल भी इस आधार पर देश में प्रवेश पाने के लिए तैयार बैठी हैं.
इस संदर्भ में इस ओर ध्यान दिलाना जरूरी है कि वि के सैकड़ों शीर्ष वैज्ञानिक स्वास्थ्य, पर्यावरण व कृषि हितों की रक्षा के लिए जीएम फसल व तकनीक का बड़ा विरोध कर चुके हैं. इस विचार को इंडिपेंडेंट साइंस पैनल; स्वतंत्रता विज्ञान मंच ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है. इस पैनल में एकत्र हुए विश्व के अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसल पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया, जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है-जीएम फसल के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं और यह खेतों में समस्याएं पैदा कर रहीं हैं. इन फसल का प्रसार होने पर ट्रांसजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है. सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसल की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है. इन फसल की सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताओं के बावजूद यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी पूर्ति नहीं हो सकती है, जिसे फिर ठीक नहीं दिया जा सकता है.
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