घोंसले में आ बैठे सांप-बिच्छू

Last Updated 25 Sep 2016 05:31:14 AM IST

उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति में किसी की थोड़ी सी भी ज्यादा रुचि रही होगी तो उसने आर.के. चौधरी का नाम जरूर सुना होगा.


घोंसले में आ बैठे सांप-बिच्छू

आर.के. चौधरी एक बड़े दलित नेता हैं, हालांकि उतने बड़े नहीं हैं, जितनी बड़ी नेता बहन मायावती हैं. वह बहन मायावती के बड़ेपन से त्रस्त होकर उनकी परिधि से बाहर आए अनेक दलित नेताओं में से एक हैं और इस समय बीएस-फोर के अध्यक्ष हैं. बीएस-फोर यानी बहुजन समाज स्वाभिमान संघर्ष समिति. यह कभी कांशीराम द्वारा गठित डीएस-फोर यानी दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की तर्ज पर बनाया गया संगठन है, जिसकी कि वे आजकल रैलियां कर रहे हैं और इन रैलियों में हजारों दलित और गैर-दलित नेताओं द्वारा पिछले वर्षो में हजारों बार कही गयी बातों को पुन:-पुन: दोहरा रहे हैं. वह कहते हैं कि शिक्षा, संपदा और संसाधनों पर महज चंद प्रभावशाली लोगों का कब्जा है. बहुजन समाज के हित में इस कब्जे को हटाना जरूरी है. सभी जाति और धर्मो के बहुजन बराबरी और इंसानियत की जिंदगी जी सकें, इसके लिए सत्ता परिवर्तन तो जरूरी है ही सामाजिक परिवर्तन ज्यादा जरूरी है.

अब चौधरी साहब की इन बातों से असहमत होने का या इन बातों पर शंका खड़ी करने का कोई ठोस कारण नहीं है. भले ही इस दिशा में काम करने की उनकी अपनी रीति-नीति पर जायज-नाजायज सवाल खड़े किए जाते रहे हों. बहरहाल, वह अपने प्रवचनों में एक बात खासा जोर देकर कहते हैं कि महात्मा फुले, छत्रपति साहूजी, पेरियार रामास्वामी और डॉ अम्बेडकर जैसे महान नेताओं के विचारों और कार्यों तले मान्यवर कांशीराम ने वांछित सामाजिक परिवर्तन के लिए राजनीतिक पार्टी के तौर पर जिस बसपा या बहुजन समाज पार्टी का घोंसला निर्मित किया था, उस घोंसले में अब सांप-बिच्छुओं का वास हो गया है.

यानी जिस घोंसले में जातिविहीन समाज यानी समतामूलक समाज यानी सामाजिक परिवर्तन के पक्षियों की चहचहाहट गूंजनी थी, वहां ऐसे सांप-बिच्छुओं ने प्रवेश पा लिया है, जिनके दंश और डंकों से चहचहाहट खत्म हो गई है. उनका स्पष्ट मत हैं कि मायावती ने अपने आचरण से दलित आंदोलन को पथभ्रष्ट कर दिया है, उन्होंने दलित विरोधी ताकतों से समझौता कर लिया है और दलितों के समर्थन के बल पर स्वयं अपनी सत्ता स्थापित कर ली है. वह अब एक \'महारानी\' बन गयी हैं, जो सिर्फ और सिर्फ अपनी व्यक्तिगत सत्ता को मजबूत करना चाहती हैं, दलितों-पिछड़ों-अतिपिछड़ों और दबाव में धर्म परिवर्तन कर मुसलमान या ईसाई बने लोगों के समूह के रूप में परिकल्पित बहुजन समाज की सत्ता को नहीं.

मायावती पर उत्तर प्रदेश या बाहर का हर वह नेता जो या तो प्रारंभ से ही उनकी रीतियों-नीतियों का विरोधी रहा है या जो अल्प या दीर्घ अवधि तक उनके साथ रहकर उनसे अलग हुआ है, उन पर इसी तरह के या इससे भी अधिक गंभीर आरोप लगाता रहा है. कोई उन्हें तानाशाह बताता है तो कोई उन पर चुनावी टिकटों का सौदागर होने का आरोप लगाता है तो कोई भ्रष्टाचार के माध्यम से अकूत दौलत कमा लेने का. उनके राजनीतिक विपक्षी तो उन पर ऐसे आरोप लगाते ही हैं, लेकिन जब उनके साथ रह चुके या उनके साथ काम कर चुके लोग अपने अनुभव के आधार पर ऐसे आरोप लगाते हैं तो इन आरोपों को स्वत: ही प्रामाणिकता प्राप्त हो जाती है.

हाल ही में पद्म सिंह नाम के मायावती की ही बिरादरी के एक दलित सज्जन ने भाजपा में प्रवेश किया है. पद्म सिंह वह व्यक्ति हैं जो वर्षो तक बड़े भाई की तरह अपनी छोटी बहन की सुरक्षा का दायित्व संभाले रहे. पुलिस सेवा में रहे पद्म सिंह ने एक बार मायावती के साथ बने रहने के लिए अपनी विभागीय प्रोन्नति तक को ठुकरा दिया था. पद्म सिंह कांशीराम द्वारा गठित दलित अधिकारी-कर्मचारी संगठन वामसेफ के भी सदस्य रहे है. फिर अचानक क्या हुआ कि पद्म सिंह ने मायावती की बसपा की जगह भाजपा का चुनाव किया. पद्म सिंह मानते हैं कि मायावती ने \'सर्वजन\' के नाम पर दलित आंदोलन को भटका दिया है. जो राय आर.के. चौधरी की है लगभग वही राय पद्म सिंह की भी है.



यहां मायावती के छाते से निकलकर दूसरे राजनीतिक दलों में शामिल होने वाले अवसरवादी कथित उच्च जातीय नेताओं की बात करें तो उनका बाहर जाना उनके स्वाभाविक चरित्र के अनुसार रहा है. मायावती के साथ आने में उनकी रुचि न दलितों के प्रति सहानुभूति के कारण थी, न उनके साथ एकात्म स्थापित करने के लिए थी और न सामाजिक परिवर्तन की किसी प्रक्रिया में शामिल होने के लिए. ये नेतागण अपने धनबल-जनबल-बाहुबल की पूंजी लेकर मायावती के साथ इसलिए जुड़े थे कि उन्हें सीढ़ी बनाकर सत्ता के सिंहासन तक पहुंच सकें. जिन्हें लगा कि यह सीढ़ी कमजोर हो गई है या इस सीढ़ी पर चढ़ने की उनकी संभावनाएं समाप्त हो गई है, वे अन्यान्य दलों की ओर पलायन कर गए और जिन्हें अपने तईं यह सीढ़ी अब भी मजबूत लगती है, वे आज भी मायावती के साथ खड़े दिखते हैं.

लेकिन सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से वास्तविक चिंता उन दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक नेताओं को लेकर है, जिनका मायावती से लगातार मोहभंग हो रहा है और वे उन्हें छोड़कर जा रहे हैं. इन दलित-पिछड़े नेताओं का बसपा छोड़कर जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मायावती बहुजन समाज के लिए परिवर्तनकामी नेता नहीं रही हैं. वह बड़ी नेता हो सकती हैं, लेकिन उनका बड़प्पन दलित-पिछड़े समूहों को स्वयं से जोड़े रखने में असफल सिद्ध हो रहा है. मायावती ऐसे किसी भी नेता को अपने लिए अयोग्य बताकर, महत्त्वाकांक्षी बताकर या भाई-भतीजावादी बताकर खारिज कर देती हैं, लेकिन इसमें जो वास्तविकता निहित है वह आंशिक हो सकती है, पूर्ण वास्तविकता नहीं.

वास्तविकता यह है कि तमाम तरह की सवर्णतावादी या यथास्थितिवादी ताकतों से लगातार सत्ताकामी समझौते करते रहकर मायावती ने सामाजिक परिवर्तन की दिशा को भ्रष्ट कर दिया है. वह अब एक जातिवादी नेता के तौर पर स्थापित हो गई हैं, जातिविहीनतावादी नेता के तौर पर नहीं. उनके नेतृत्व में समतामूलक समाज के विचार का जैसा बिखराव हुआ है उसका पुनर्सयोजन फिलवक्त संभव नहीं दिखता. तो क्या इतिहास मायावती को सिर्फ उनकी अपनी मूर्तियों के लिए याद रखेगा या इसलिए भी याद रखेगा कि उन्होंने उत्तर प्रदेश को समतामूलक समाज की स्थापना के स्वप्न की कब्रगाह बना दिया?

 

 

विभांशु दिव्याल


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