चुनौती बनता बुढ़ापा
इक्कीसवीं सदी में एक मौन क्रांति जनसंख्या की संरचना को लेकर आ रही है. इसके तहत वैश्विक स्तर पर एक गंभीर बदलाव आ रहा है, जिसमें वृद्धों की संख्या अन्य आयु वर्गों की तुलना में बढ़ती नजर आ रही है.
गिरीश्वर मिश्र (फाइल फोटो) |
बुढ़ाती जनसंख्या वैश्विक प्रवृत्ति का रूप ले रही है. समाज की संस्थाओं के ताने-बाने में इसके फलस्वरूप बड़ी उठापटक मची हुई है. यह स्थिति अब विकसित और विकासशील दोनों ही तरह के देशों में दिख रही है. मनुष्य की अधिकतम आयु 120 वर्षो की मानी जाती है. मृत्यु का विचार डरावना होता है और हर कोई इससे भागता है, बचना चाहता है. वैसे दीर्घायु होना सामाजिक-आर्थिक प्रगति का द्योतक है. अच्छी चिकित्सा सुविधा, तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता और अच्छे पोषण वाले आहार से ऐसा बदलाव आ रहा है. जन्म दर और मृत्यु दर में कमी आने के साथ इस तरह का बदलाव स्वाभाविक है. जीवन का विस्तार बढ़ रहा है. भारत की औसत जीवन प्रत्याशा अब 68.89 वर्ष हो रही है (पुरुषों की 67.46 वर्ष और स्त्रियों की 72.61 वर्ष).
बुढ़ाना सामान्य, असामान्य या फिर सफलता वाला हो सकता है. सफल वार्धक्य तब कहेंगे, जब व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सक्रियता अधिकतम स्तर पर बनी रहे. व्यक्तियों के बीच बुढ़ापा अलग-अलग ढंग से आता है. खुद एक व्यक्ति में भी बौद्धिक, सामाजिक और शारीरिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन भिन्न मात्रा में और भिन्न रूपों में आता है. सच तो यह है कि बुढ़ापा (एजिंग) जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है और आजीवन चलता रहता है. हां, इसका रूप और तीव्रता बदलती रहती है. बाद में जो गिरावट आती है, उसके अनेक कारण होते हैं. मसलन जीवन शैली, शिक्षा, व्यवसाय, बौद्धिक और सांस्कृतिक कार्यकलाप, तनाव, सामाजिक भागीदारी आदि. परिवेश से मिलने वाले और व्यक्ति द्वारा चुने गए, दोनों तरह के तत्व काम करते हैं. यदि व्यक्ति जीवन विस्तार में अधिकतम रूप से व्यवस्थित न किया जाए तो वृद्धावस्था में जोखिम बढ़ जाता है और व्यक्ति मधुमेह, स्मृतिलोप, मस्तिष्क आघात और सामाजिक अलगाव आदि से ग्रस्त हो जाता है. इसलिए केवल \'सुखायु\' नहीं बल्कि \'हितायु\' भी होनी चाहिए. व्यक्ति को अपने जीवन में लोक कल्याण को भी जगह देनी चाहिए.
आम तौर पर वृद्धों को लेकर कई गलत धारणाएं प्रचलित हैं, जैसे बुद्धि और सर्जनात्मकता कम होना या अवसादग्रस्त होना आदि. अक्सर उन्हें बीमार और असहाय माना जाता है. वे समाज पर भार स्वरूप होते हैं. पर वृद्ध लोग ज्ञान, कौशल और अनुभव की दृष्टि से मूल्यवान होते हैं. समाज का दायित्व बनता है कि ऐसी व्यवस्था बने कि उन्हें मुख्य धारा से जोड़ा जाए, उनका स्वस्तिभाव बना रहे और सामाजिक, शारीरिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से गतिशीलता के अवसर मिले. उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो, जीवन में उद्देश्य दिखे, वे सेवा करें, उनके सामने लक्ष्य रहे और सफलता की अनुभूति हो. वे आत्मनिर्भर जीवन जिएं जन कल्याण में योगदान दें.
संयुक्त परिवार के टूटने से सामाजिक संरचना बदली है. एकल परिवारों में वृद्धों को स्थान नहीं मिलता है. अत: आर्थिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि की व्यवस्था द्वारा वृद्धों की भागीदारी के मार्ग में आने वाली बाधाएं दूर कर उन्हें संलग्नता और गरिमा के साथ भागीदारी का अवसर दिया जाना आवश्यक है. वृद्धावस्था में सफल जीवन के लिए जीने की शैली, सजग मानसिकता, तनाव प्रबंधन, अपनी देखभाल स्वयं करना, सहयोग प्राप्त करना, शारीरिक कार्य से जुड़े रहना, नियमित स्वास्थ्य की जांच आदि के लिए मानव संसाधन में निवेश जरूरी होगा.
संख्या और अनुपात में वृद्ध जन बढ़ रहे हैं. ऐसे में हमें यह विचार करना होगा कि वृद्ध व्यक्ति को किस तरह सामान्य जीवन का हिस्सा बनाया जाए? उसकी भूमिका क्या हो? उनका अकेलापन और अलगाव कैसे दूर करें? पीढ़ियों की परस्पर निर्भरता को कैसे स्थापित करें? यह जरूरी है कि वृद्ध जनों को कठिन परिस्थिति में भी डटे रहने, सामाजिक सम्बन्धों को जिलाए रखने, अपने में आत्मविश्वास और आशावादिता लाने और सीमाओं के साथ जीने के लिए सरकारी और गैर सरकारी हस्तक्षेप जरूरी है. इस तरह की सठती लाने के लिए समाज के स्तर पर सोच बदलनी होगी और व्यवस्था का पुनराविष्कार करना होगा, जिसमें वृद्ध को मुख्य धारा का सक्रिय अंग बनाया जा सके.
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