युद्ध के लिए हां और ना के बीच

Last Updated 25 Sep 2016 04:49:39 AM IST

जब लोग प्रधानमंत्री को उनके छप्पन इंच के सीने की याद दिलाते हैं या विदेश मंत्री को बतलाते हैं कि उन्होंने एक सिर के बदले कितने सिर लाने की बात कही थी, तो उनकी मांग यह नहीं होती है कि भारत तुरंत पाकिस्तान के साथ युद्ध छेड़ दे.


राजकिशोर (फाइल फोटो)

भारत की जनता इतनी जल्दबाज नहीं है, न ही वह युद्ध-पिपासु है. वह सिर्फ यह जानना चाहती है कि फिदायीन के माध्यम से भारत पर बार-बार हमला करने वाले पाकिस्तान पर हमारी सरकार कार्रवाई क्यों नहीं करती? देश के भीतर जब आदिवासी या दलित प्रदशर्न करते हैं या किसान-मजदूर अपने हकों के लिए लड़ते हैं, तब पुलिस को लाठी या गोली चलाने में देर नहीं लगती. श्रीनगर में जब कश्मीरी बूढ़े-जवान-बच्चे कोई प्रतिवाद जुलूस निकालते हैं, तब आशंका होती है कि सीआरपीएफ या फौज के छर्रे कभी भी छूट सकते हैं.

लेकिन जब भारत के सैनिक ठिकाने या फौजी कैंप पर आतंकी हमला होता है, तब सरकार सबूत जमा करने लगती है कि इनके पीछे किसका हाथ हो सकता. दुनिया भर के सम्मेलनों और विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से मुलाकातों में पाकिस्तान को दक्षिण एशिया का एकमात्र खलनायक बताते हमारी जुबान नहीं थकती, लेकिन जब पाकिस्तान से राजनयिक या व्यापारिक रिश्ते तोड़ने की बात आती है, तब हमारे हाथ कांपने लगते हैं.

यह सही है कि हमें पाकिस्तान जैसा युद्धक देश नहीं बनना है, पर ऐसा हिंदुस्तान भी नहीं बनना है जिसकी सीमाओं को लांघ कर कोई भी चला आए और हमारे क्षेत्र में वारदात करके चला जाए. इतनी बड़ी सेना क्यों है? जो जो हथियार हम जमा कर रहे हैं और महंगे दामों पर खरीद रहे हैं, वे किस दिन के लिए हैं? या तो भारतीय फौज को भंग कर दीजिए और मिसाइल चलाने के बजाय वीणा बजाइए या धमाके के साथ बताइए कि पाकिस्तान जैसा पिद्दी देश हमें लगातार जोखिम में नहीं रख सकता. कश्मीर नि:संदेह एक राजनीतिक समस्या है, लेकिन पाकिस्तान सैनिक समस्या है. विश्व शक्तियों की दिलचस्पी भारत-पाकिस्तान विवाद न सुलझाने में है और न कभी होगी. वे दोनों हाथ लड्डू चाहते हैं.

पाकिस्तान का जन्म ही अविभाजित भारत में आतंकवाद से हुआ था. तब डाइरेक्ट एक्शन था, अब इनडाइरेक्ट एक्शन है. आतंकवाद का स्वभाव जोंक की तरह होता है. आतंकवाद की गिरफ्त में पाकिस्तानी खून भी बह रहा है. लेकिन पाकिस्तान के लिए आतंकवाद का समर्थन उसके राजस्व का भी एक बड़ा स्रेत है, उन देशों से जो धर्म के आधार पर उसके साथ हैं और उन देशों से भी, जो आतंकवाद के खिलाफ एक नकली वि युद्ध छेड़े हुए हैं. अभी तक हम एक ऐसी दुनिया नहीं बना पाए हैं, जिसमें आतंकवाद सार्विक घृणा का विषय हो.

युद्ध का निर्णय एक कठिन निर्णय है. भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों के पास परमाणु बम नहीं होता, तब भी. पाकिस्तानी भले हमें भाई-बहन न समझते हों, पर हम उन्हें अपना भाई-बहन मानते हैं. दोनों देशों में मुसलमानों की बड़ी आबादी है और भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ता है, तो हमारे देश में सांप्रदायिक स्थिति भी बिगड़ती है. लेकिन अस्सी के दशक से कश्मीर में जो अभूतपूर्व स्थिति बनी हुई है और आतंकवादी घटनाओं का जो सिलसिला जारी है, उसका भी एक जबरदस्त तनाव है, जिसे भारत के लोग झेल रहे हैं और अब ज्यादा दिनों तक नहीं झेल सकते. जिन्हें बातचीत की प्रक्रिया में असीम आस्था है, उनसे मेरी विनती है कि वे किसी गुर्राते हुए भेड़िए से बातचीत शुरू करके दिखा दें. समस्याएं बातचीत से ही सुलझती हैं, पर बातचीत की भी एक सीमा होती है. अगर हमारे पास नाखून और दांत नहीं हैं तो बातचीत का रास्ता क्रमिक आत्महत्या का पर्याय हो जाता है. हमारी समस्या यह है कि हमें जो सख्ती पाकिस्तान के साथ बरतनी चाहिए, वह हम कश्मीरियों के साथ दिखाते हैं.

पाकिस्तान को शांत करना हमारा राष्ट्र धर्म है, वह चाहे जैसे हो. लेकिन कश्मीर को शांत किए बिना हम इस दिशा में कुछ भी नहीं कर सकते. पाकिस्तान कश्मीर  में तभी तक सफल हो सकता है, जब तक कश्मीर अशांत है. अगर कोई इस गलतफहमी में है कि कश्मीर की अशांति पाकिस्तान की वजह से है, तो न केवल उसकी आंखें बंद हैं, बल्कि कान भी सुन्न हैं. जिस दिन कश्मीर को हम अपना बनाने में सफल हो जाएंगे, उस दिन पाकिस्तान उलटे पांव भाग चलेगा. उसे कश्मीर में खरीददार नहीं मिलेंगे.

दुर्भाग्य से, केंद्र में एक ऐसे दल का बहुमत है, जो शुरू से ही भारत और कश्मीर को जोड़ने वाली धारा 370 को खत्म करने की मांग करता आया है. उसे कैसे समझाया जा सकता है कि भारत और कश्मीर को जोड़ने वाला एक और औजार वह विलय पत्र है, जिसके आधार पर कश्मीर भारत का अंग बना था,  उस विलय पत्र का एक प्रावधान यह था कि स्थिति सामान्य होने पर उस संधि पर कश्मीर के लोगों की रायशुमारी की जाएगी. यह गड़े मुरदे नहीं हैं. जिस तरह गंगा को गंगोत्री से ही साफ किया जा सकता है बनारस से नहीं, उसी तरह कश्मीर को सुलझाने के लिए हमें 1948 तक लौटना पड़ सकता है वरना कोई भी युद्ध मोदी को सुर्खरू बनाने का नुस्खा भर साबित होगा.

राजकिशोर


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