प्रकृति : अतिदोहन से धरती का विनाश

Last Updated 01 Sep 2016 01:43:56 AM IST

वह बात दीगर है कि दुनिया के इन देशों की तुलना में भारत सबसे निचले स्थान पर है और भारतीयों की जीवनशैली पर्यावरण और जलवायु के काफी अनुकूल है.


प्रकृति : अतिदोहन से धरती का विनाश

बीते दिनों ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क ने खुलासा किया है कि यदि दुनिया की आबादी आस्ट्रेलिया, अमेरिका, स्विटजरलैंड, दक्षिण कोरिया, रूस, जर्मनी, फांस, ब्रिटेन, जापान, इटली, स्पेन, चीन, ब्राजील आदि देशों के नागरिकों की जीवनशैली और पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों के उपभोग के स्तर के हिसाब से जिंदगी व्यतीत करे तो बढ़ती आबादी की दृष्टि में कई पृथ्वी की जरूरत पड़ेगी.

वह बात दीगर है कि दुनिया के इन देशों की तुलना में भारत सबसे निचले स्थान पर है और भारतीयों की जीवनशैली पर्यावरण और जलवायु के काफी अनुकूल है. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज धरती विनाश की ओर बढ़ रही है.

इसका अहम कारण तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में मानव का लगातार तेजी से बेतहाशा भागे चले जाना है. यह वास्तव में विनाश का मार्ग है. इसी विकास के दुष्परिणाम के चलते हुए बदलावों के कारण पृथ्वी पर दिन-ब-दिन बोझ बढ़ता जा रहा है. इसमें जलवायु परिवर्तन ने अहम भूमिका निबाही है. यह एक गंभीर समस्या है जो समूची दुनिया के लिए भीषण खतरा है.

इसे जानने-बूझने और सतत प्रयासों से पृथ्वी के इस बोझ को कम करने की बेहद जरूरत है. हम सबका दायित्व है कि पृथ्वी के उपर आए इस भीषण संकट के बारे में सोचें और इससे निजात पाने के उपायों पर अमल करने का संकल्प लें. भारत को ही लें, विचारणीय यह है कि हमारे यहां पृथ्वी की चिंता आज किसे है? किसी भी राजनीतिक दल से इसकी उम्मीद नहीं है.

क्योंकि यह मुद्दा उनके राजनीतिक एजेंडे में है ही नहीं. कारण पृथ्वी वोट बैंक नहीं है. दुनिया जहांन के स्तर पर सोचें तो पृथ्वी हमारे अस्तित्व का आधार है, जीवन का केंद्र है. वह आज जिस स्थिति में पहुंच गई है, उसे वहां पहुंचाने के लिए हम ही जिम्मेवार हैं. आज सबसे बड़ी समस्या मानव का बढ़ता उपभोग है. कोई यह नहीं सोचता कि पृथ्वी केवल उपभोग की वस्तु नहीं है. वह तो मानव जीवन के साथ-साथ लाखों-लाख वनस्पतियों-जीव-जंतुओं की आश्रयस्थली भी है. इसके लिए खासतौर से उच्च वर्ग, मध्य वर्ग, सरकार और संस्थान सभी समान रूप से जिम्मेवार हैं.

असलियत में इस्तेमाल में आने वाली हर चीज के लिए, भले वह पानी, जमीन, जंगल या नदी हो, कोयला, बिजली या लोहा आदि  प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में हमने कीर्तिमान बनाया है. बढ़ती आबादी का पानी, भोजन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग आज खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. आलम तो यह है कि धरती पर साल भर में होने वाले प्राकृतिक संसाधनों के उत्पादन के बराबर उपभोग तो हमने बीते सात महीनों में ही कर लिया है. इसका खुलासा ‘ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क’ और ‘ग्लोबल फुटप्रिंट एकाउंट’ ने किया है.

इसके अनुसार बीते सात महीने और एक हफते में ही धरती पर साल भर में बने प्राकृतिक संसाधनों को मानव द्वारा हड़प लिया गया है. हर साल उन्नीस दिसम्बर के स्थान पर बीती आठ अगस्त को ‘अर्थ ओवरशूट डे’ का मनाया जाना इसका जीता-जागता सबूत है. प्रदूषण की अधिकता के कारण देश की अधिकांश नदियां अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं. रियल एस्टेट का बढ़ता कारोबार इसका जीता-जागता सबूत है कि वह किस बेदर्दी से अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर रहा है. आईपीसीसी के अध्ययन खुलासा करते हैं कि बीती सदी के दौरान पृथ्वी का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है.

अगले सौ सालों के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है. यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम पण्राली में व्यापक स्तर पर विनाकारी बदलाव ला सकती है. इसके चलते जलवायु और मौसम में बदलाव के सबूत मिलने शुरू हो ही चुके हैं. प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन पर अंकुश लगाए बिना जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हमारा संघर्ष अधूरा रह जाएगा. इस सच की स्वीकारोक्ति कि हम सब पृथ्वी के अपराधी हैं, इस दिशा में पहला कदम होगा. इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी जीवनशैली पर पुर्नविचार करना होगा. हमें पृथ्वी के प्रहरी बनकर उसे बचाने और आवयकतानुरूप उसके उपभोग का संकल्प लेना होगा.

ज्ञानेंद्र रावत
लेखक


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