चौं रे चम्पू : उठाया प्रेम का पर्वत
चौं रे चम्पू! तैनैं अखबार में वो फोटू देखौ, जामैं एक आदमी अपनी मरी भई बीवी ऐ लैकै जाय रह्यौ ऐ?
अशोक चक्रधर |
-चचा, न केवल फोटो बल्कि उसका वीडियो भी जंगल की हवा की तरह दुनिया में फैल गया, लेकिन शासन-प्रशासन के मन का नहीं मैल गया. नाम था दाना मांझी, मृतका अमांग देई और साथ में थी बेटी चौमा. दाना अगर चाहता तो अस्पताल के पास ही कहीं अंत्येष्टि कर सकता था. जब कह दिया गया, उठा कर ले जाओ, तो उठा कर ले चला. अखबार ने फोटो छापे, टीवी ने वीडियो दिखाए, सोशल मीडिया ने संवेदनशून्यता को वायरल कर दिया.
चचा! हमारे मुल्क का गरीब है न, न तो उसके पास भारत के नागरिक होने का गर्व है, न ज्ञान है, न गुरूर है. देश में धन-पद-मगरूर लोगों के पास संकट के लिए हर सपोर्ट है, क्योंकि उन्हीं के पास तो नागरिकता के क्षेत्र में आने-जाने का पासपोर्ट है. ऐसे अधिकांश लोग इन गरीबों को स्पार्टकस के जमाने के, फकत बोलने वाले औजार मानते हैं. गुलाम हैं, भूखे हैं, दारू पीते हैं, बीमार हो जाते हैं और मर जाते हैं.
-तौ कौन जिम्मेदार ऐ?
-धन-पद-मगरूर तो कहेंगे कि वही खुद जिम्मेदार था. बात फैल गई तो इलाके के एक बड़े अधिकारी ने कह दिया कि वह तो दारू पिए हुए था. उनसे पूछो कि आप दारू पीकर दस-बारह किलोमीटर कोई शव अपने कंधे पर लादकर जा सकते हैं? कुपोषण की शिकार उसकी पत्नी मर गई.
लेकिन एक भावना नहीं मरी चचा! वह भावना किसी नागरिकता से नहीं मिलती. वह या तो प्यार से आती है या बनी चली आती हुई परम्पराओं से.
हमारे पुरु ष-प्रधान समाज ने अपने हित में नियम बना दिया कि ‘मायके से डोली निकले, अर्थी ससुराल से’. आपने दशरथ मांझी के बारे में भी सुना होगा, जिसने किसी परंपरा के कारण नहीं, विशुद्ध प्रेम में चालीस किलोमीटर तक पर्वत काटकर अस्पताल तक जाने का रास्ता बनाया था. इस दाना मांझी ने साठ किलोमीटर तक का रास्ता तय करने की ताकत संजोकर प्रेम का पर्वत अपने कंधे पर उठाया था.-कछू कहौ, हम तौ फोटू देखि कै बहुतई रोए.
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