हाजी अली : पितृसत्ता पर प्रहार
एक ऐतिहासिक फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाजी अली दरगाह के मजार पर महिलाओं के प्रवेश पर लगाई गई पाबंदी को अवैध करार दिया.
पितृसत्ता पर प्रहार |
यह जनहित याचिका नूर्जेहान नियाज और (लेखिका जकिया सोमन) ने मिलकर दायर की थी.
हम सब जानते हैं कि दुनिया भर में और हमारे देश में भी पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के चलते धर्म का संचालन एवं व्यवस्थापन करीब-करीब शत-प्रतिशत पुरु षों के हाथों में है. फिर केरल के सबरीमाला मंदिर या महाराष्ट्र के शनि मंदिर या कुछ दरगाहों के मजार में महिलाओं के प्रवेश को वर्जित किया जाना कोई ताज्जुब की बात नहीं है. यह महिलाओं के साथ सीधे और प्रत्यक्ष भेदभाव के प्रतीक हैं. मुसलमान समुदाय जो की देश का सब से बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है; इस पुरुष प्रधान मानसिकता का बहुत बड़ा शिकार है.
1400 वर्षो पहले कुरान ने महिलाओं को जो अधिकार दिए, वह अब तक जमीनी हकीकत में तब्दील नहीं हो पाए हैं. यही नहीं एक समान्य समझ है कि इस्लाम मजहब में पुरुष सर्वोपरि है और महिलाएं गौण. हाजी अली मजार में महिलाओं के प्रवेश पर लगाई गई रोक का मूल कारण इसी सामान्य समझ एवं मानसिकता का नतीजा है. यहां हाजी अली दरगाह की बात विस्तार से करना जरूरी है. 400 सालों पहले हाजी अली बाबा एक सूफी संत थे. हाजी अली पीर की दरगाह एवं मजार मुंबई के समंदर में करीब 150 वर्षो से खड़ी है. यहां हर कोई माथा टेकने जाता है. फिर वह हिंदू हो या मुसलमान; औरत हो या मर्द; अमीर हो या गरीब. सभी सूफी पीर की शरण में जाकर रूहानियत एवं सुकून पाते हैं.
सूफी विचारधारा इस्लाम धर्म का मानवता, शांति, एकता एवं प्रेमभाव का चेहरा दर्शानेवाली विचारधारा है. सूफी आध्यात्मिकता में इंसान अपने ईश्वर या विश्व के रचयिता से मोहब्बत करते हैं और उस प्रेमभाव में विलीन होकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं. यही वजह है कि जब हम औरतों को अचानक 2012 में हाजी अली मजार पर जाने से रोक दिया गया तो आघात लगा. जबकि हम बचपन से लेकर 2011 तक बराबर मजार तक जाकर चादर चढ़ाते रहे हैं. 2012 की शुरुआत में जब हम महिलाओं के समूह के तौर पर दरगाह गए तो हमने पाया की महिलाओं के प्रवेश के अलायदा रास्ते पर इस्पाती कटहरे लगा दिए गए हैं. हमें कहा गया कि आपके प्रवेश की सीमा यहीं तक है. यानी कि आप महिलाएं मजार तक जाकर स्वयं चादर नहीं चढ़ा सकतीं और आपको माथा इस दूरी से ही टेकना होगा. आप अपनी जियारत भी दूर से ही करें. इस बात से हमें बहुत अचंभा हुआ.
हमें लगा, 2012 में ऐसी क्या बात हो गई कि हमें मजार में प्रवेश से रोका जा रहा है? यह बात हमें हरगिज गंवारा नहीं थी. क्योंकि भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन मुस्लिम महिलाओं के सामान अधिकार में विश्वास रखता है. हम भी उतनी ही मुसलमान हैं जितने की मर्द. जब अल्लाह ने हमारे साथ भेदभाव नहीं किया है तो दरगाह में यह भेदभाव क्यों. हमें यह भेदभाव हरगिज मंजूर नहीं था. फिर भी हमने बातचीत से इस मसले को सुलझाने की कोशिश कि. हमने हाजी अली ट्रस्ट से मिलने की कोशिश में कई कदम उठाए. हम उनके दफ्तर गए और कई पत्र भी लिखे. हमारे निवेदन पर महिला आयोग एवं अल्पसंख्यक आयोग जैसे लोकतांत्रिक संस्थानों ने भी मामले में मध्यस्थता करना चाही. पर हाजी अली ट्रस्ट ने जब हमारी एक न सुनी तब हमने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.
हमारी याचिका में इस्लाम धर्म और भारतीय संविधान दोनों को ही आधार बना कर दलीलें रखी गई. वैसे तो इस्लाम धर्म की सबसे पवित्र जगहों में मक्का, मदीना, नजफ और करबला शुमार है. इन सभी धार्मिंक स्थलों में औरतों के प्रवेश पर पाबंदी नहीं है. खुद हाजी अली मजार में 2011 तक पाबंदी नहीं थी. फिर यह मनमानी क्यों? साथ ही यह संविधान कि अनुच्छेद 15 की सीधी अवहेलना भी बनती है. ट्रस्ट ने कई दलीलें दी, जो हमारी नजर में बिलकुल वाहियात थीं. उन्होंने महिलाओं के अपवित्र होने की एवं उनके पहनावे इत्यादि जैसी दकियानुसी और हास्यास्पद बातें कही. उनके मुताबिक महिलाएं अपने पहनावे से मदरे का ध्यान भटका देतीं हैं. इसलिए महिलाओं का प्रवेश वर्जित होना जरूरी है. जाहिर है, इन दलीलों को हाईकोर्ट ने सिरे से ठुकरा दिया. 2012 से लेकर जो जद्दोजहद की गई, उसके परिणामस्वरूप फैसला हमारे हक में आया. इस संघर्ष में देशभर की साधारण मुस्लिम महिलाओं ने हमारा साथ दिया. इस संदर्भ में कुछ अहम सवाल उठते हैं. क्या महिला की जिंदगी पुरुषों की मनमानी के मुताबिक चलती रहेगी?
क्या पुरुष प्रधान लोग महिलाओं को अपवित्र करार देकर उन्हें मजार से दूर रखेंगे? यह तो अपने स्थापित हित और पितृसत्ता को बनाए रखने की साजिश मात्र है. जब अल्लाह ने औरत और मर्द को बराबरी का दर्जा दिया है, जिसका प्रमाण कुरान की आयतों में मिलता है तो फिर भेदभाव करनेवाले मर्द कौन होते हैं? कुरान और इस्लाम की रोशनी में एवं भारतीय संविधान के मद्देनजर दोनों ही सूरतों में यह भेदभाव है और सरासर गलत है. इस पर रोक लगना लाजिमी है.
कोर्ट का फैसला भी इसी बात को समर्थन देता है और महिलाओं की समानता के संवैधानिक दायित्व को उजागर करता है. पिछले कुछ वर्षो में देश में कई ऐसे संघर्ष छेड़े गए हैं, जहां महिलाओं की रहनुमाई में धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों को चुनौती दी गई है. इसमें पुरुषों ने भी महिलाओं का साथ दिया है. सबरीमाला से लेकर हाजी अली दरगाह तक यही कहानी है. धर्म के दुरुपयोग और इसकी आड़ में पितृसत्ता के कुचक्र पर ब्रेक लगाना जरूरी है. बॉम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला महिला आंदोलन एवं मानवाधिकार आंदोलन की बहुत बड़ी जीत है. भारत की मुस्लिम महिलाओं के साथ धार्मिंक एवं पारिवारिक मामलों में 1947 से चले आ रहे अन्याय को चुनौती देने में यह फैसला दूरगामी साबित होगा.
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