समाज : सिवाय खेल के बाकी सब खेल

Last Updated 28 Aug 2016 04:40:00 AM IST

भगवान लम्बी उम्र दे साक्षी मलिक और पीवी सिंधु को. इन दोनों खिलाड़ियों ने ओलंपिक खेलों में देश की लंबी नाक कटते-कटते बचा ली.


समाज : सिवाय खेल के बाकी सब खेल

देश रियो ओलंपिक के पहले दिन से ही ढोल-नगाड़े लिए बैठा था कि कब रियो से कोई रंजक राग उठे और वह अपनी थाप से वातावरण को गुंजायमान कर दे. जब ग्यारह दिन तक इतने बड़े दल के बीच से निकल कर कोई शुभ समाचार नहीं मिला तो जैसे ढोल-नगाड़े भी थककर बैठ गए. बीच में दो-तीन बार जरूर लगा कि अब पदक आया, तब आया, परंतु उम्मीद की डोर हर बार चटकती रही.

और जब यह लगने लगा था कि खुशी से झूमने को आतुर देश अपनी आतुरता खोने लगा है, तभी 12वें दिन महिला कुश्ती प्रतिस्पर्धा में साक्षी मलिक ने कांस्य पदक जीतकर सूखे में बादल बरसा दिए. उसी दिन शाम को जब पीवी सिंधु ने महिला बैडमिंटन की एकल प्रतिस्पर्धा में रजत पदक जीतकर भारत की झोली में दूसरा पदक डाला तो जैसे सारा देश झूम उठा. मीडिया ने झूम-झूमकर इन दोनों नरपछाड़ भारतीय नारियों की प्रशस्ति में दिन-रात एक कर दिए. पीवी सिंधु का पदक देश का अंतिम पदक साबित हुआ. फिर भी देश ने नाक बच जाने पर राहत की सांस ली. ‘न कुछ से कुछ भला, जो मिले उससे काम चला’ की तर्ज पर देश जिंदाबाद हो गया. नाक बचाने वाली दोनों महिलाओं पर न्योछावर हो गया, दोनों महिलाएं धन वष्रा से सराबोर हो गई.

अगर ये दोनों लड़कियां अपने निजी कौशल, क्षमता और परिश्रम के बल पर पदक न जीततीं तो? कितनी थू-थू होती दुनिया में. पदक प्रशस्ति अलग, आशंकित हो-होकर आशंका से बाहर आए लोगों ने मीडिया की रहनुमाई में अपने गुस्से और आलोचना-निंदा के स्वर को भी पंचम तक पहुंचा दिया. ओलंपिक में भागीदारी करने वाला इतना बड़ा दल और मात्र दो पदक? क्यों हुआ ऐसा? कौन जिम्मेदार है इसका? किसी ने खेल संघों को कोसा, किसी ने राजनीति को कोसा जो खेल की छाती पर बैठकर कबड्डी खेलती है, और किसी ने राज्य सरकारों को कोसा जो खेलों पर समुचित ध्यान नहीं देती, किसी ने खेल मंत्रालय को कोसा, किसी ने सरकार को कोसा जो खेल और खिलाड़ियों के विकास के लिए समुचित धन, समुचित साधन-संसाधन, अनुकूल वातावरण उपलब्ध नहीं कराती, खिलाड़ियों के समुचित प्रशिक्षण-संरक्षण का माहौल नहीं बनाती और खेलों को उस लाल फीताशाही से निजात नहीं दिलाती जो खेल प्रतिभाओं के निखार के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट बनी रहती है. किसी ने सुझाव दिया कि खेल संघों को राजनीति से मुक्त कराया जाए, किसी ने कहा कि खेलों की आवंटन राशि बढ़ाई जाए, किसी ने कहा कि खेल मंत्रालय एक निष्प्रभावी संस्था है; इसलिए इसे ही समाप्त कर दिया जाए.

किसी ने कहा कि और देशों की तरह खेल संस्कृति नहीं है, इसलिए खेल संस्कृति विकसित की जाए, आदि-आदि. आवाजों की इस भीड़ में मुश्किल से ही कुछ ऐसी थीं, जो खेलों की स्तरहीनता और पदकों के अकाल को समूचे राष्ट्रीय चरित्र के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित कर रही थीं. खेल सिर्फ स्कूल-कॉलेजों, खेल मैदानों, खेल संघ-संस्थाओं, खेल मंत्रालयों, आवंटित धनराशियों तथा खेल के मौसम में हार-जीत पर रोने या नगाड़े बजाने वालों तक ही सीमित नहीं होते. वह समूचे राष्ट्रीय चरित्र का आईना होते हैं. एक भ्रष्ट, विघटित, कलहकारी, अनुशासनविहीन और नागर सभ्यताविहीन समाज कभी भी ऐसी खेल-संस्कृति का निर्माण नहीं कर सकता, जो आकस्मिक तौर पर नहीं बल्कि सुनिश्चित तौर पर अच्छे खिलाड़ी पैदा करती हो.

चीन पर गौर करिए. 1952 के ओलंपिक में चीन को एक भी पदक नहीं मिला था. चीन 32 वर्षोंं तक ओलंपिक से किनारा किए रहा. फिर जब 1984 में उसने वापसी की तो 15 स्वर्ण पदक उसकी झोली में थे. इन 32 वर्षोंं में चीन में बहुत कुछ हो गुजरा था. पारंपरिक कुलीनतावादी जड़ताओं की जड़ें हिला दी गई थीं, श्रम और सफाई को व्यावहारिक संस्कृति का हिस्सा बना दिया गया था, धार्मिक पाखंडों को ध्वस्त कर दिया गया था, भ्रष्टाचार अक्षम्य और असहनीय अपराध बना दिया गया था, सार्वजनिक व्यवहार को अनुशासनबद्ध कर दिया गया था और खेलों की प्रतिस्पर्धा को विश्व स्तर पर राष्ट्रीय गौरव को स्थापित करने की प्रतिस्पर्धा बना दिया गया था. खेल चीन की राष्ट्रीय संस्कृति का प्रतिबिंब बन गए.

1984 के पदकों ने पिछले वर्षों में चीन में जो कुछ हुआ था, उसे वैधता प्रदान कर दी थी. याद करिए 2008 के बीजिंग ओलंपिक को. क्या भारत में इतने अनुशासित, इतने व्यवस्थित और इतने भव्य आयोजन की कल्पना तक की जा सकती है? दरअसल, किसी भी बड़े आयोजन के लिए अनुशासन की दरकार होती है. अमेरिका में खेल सार्वजनिक जीवन का हिस्सा है. खेलों का अनुशासन सार्वजनिक जीवन में उतरता है, और सार्वजनिक जीवन का अनुशासन खेलों में. खेल किस तरह सामाजिक विग्रहों को दूर करते हैं, यह अमेरिका में देखा जा सकता है. जब अेत खिलाड़ी अमेरिका की झोली को पदकों से भरते हैं तो समूचा अमेरिका गर्व करता है, और ेत-अेत की खाई अनायास पटने लगती है. इसी तरह ग्रेट ब्रिटेन को भी देखा जा सकता है. जिन्होंने  वहां की अनुशासित, दायित्वबोधपूर्ण और सभ्य नागर व्यवहार वाली सार्वजनिक संस्कृति को देखा है, वे उसमें उसके स्वर्ण पदकों का रहस्य खोज सकते हैं.

 इस संदर्भ में लंदन की एक घटना मैं कभी भी नहीं भुला पाता. हम साथीगण स्टीमर से टेम्स नदी की यात्रा कर रहे थे. मेरे एक साथी ने अपने कैमरे की एक चुकी हुई बैटरी टेम्स में फेंक दी थी. यह देखकर पास में बैठा यात्री गुस्से से तिलमिला गया था. कई तरह से क्षमायाचना करके उसके गुस्से को शांत कराना पड़ा था. आम नागरिकों का यह दायित्वबोध ही अंतत: खेलों के स्वर्ण में प्रकट होता है. इस परिप्रेक्ष्य में भारत कहां खड़ा है, इसे परखने के लिए अतिरिक्त अनुमान की आवश्यकता नहीं है. खेल किस तरह सामाजिक विद्रूपताओं से लड़ते हैं, और परंपरा पोषित जड़ मानसिकता के विरुद्ध कैसे विद्रोह पैदा करते हैं, इसे दीपा करमाकर और साक्षी मलिक ने सिद्ध किया है. जो काम हजार दलित विमर्श और नारी विमर्श नहीं कर सकते थे, उसे इन दो लड़कियों ने कर दिखाया. भारत को स्वर्ण के लिए आज खेल संस्कृति के लिए अपनी खेल संस्कृति बदलनी है और अपनी खेल संस्कृति को बदलने के लिए अपनी समूची राष्ट्रीय और सामाजिक व्यवहार संस्कृति बदलनी है. लेकिन जहां सब कुछ खेल हो वहां कैसे होगा यह काम?

विभांशु दिव्याल
लेखक


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