चिंतन : अपने यहां चुनाव बड़ा कारोबार

Last Updated 28 Aug 2016 03:43:09 AM IST

भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है. हम लोगों को बचपन में इसे कृषि प्रधान देश पढ़ाया गया था, लेकिन 1952 के बाद से यह चुनाव प्रधान देश है.


हृदयनारायण दीक्षित

यहां हर समय चुनाव की बहार रहती है. चुनाव यहां बड़े कारोबार जैसा है. चुनाव खर्च लगातार बढ़े हैं. इसलिए साधारण मध्यमवर्गीय कार्यकर्ता चुनाव नहीं लड़ सकते. दलतंत्र ही चुनाव युद्ध का मुख्य खिलाड़ी है. सभी विचारनिष्ठ होने के दावे करते हैं. संभव है कि उनके दावे सही भी हों, लेकिन वसंत ऋतु में बड़े-बड़े तपस्वियों के संयम टूट जाते हैं. चुनाव की ऋतु ऐसी ही होती है. देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में चुनाव का मॉनसून समय के बहुत पहले ही आ गया था. चुनाव दूर हैं, लेकिन चुनावी वष्रा से छोटी-छोटी नदियां भी उफना रही हैं.

किसी दल का नाम लेना उचित नहीं जान पड़ता. मैं स्वयं एक राष्ट्रीय दल का सक्रिय कार्यकर्ता हूं. समूचे दलतंत्र के सामान्य विवेचन तक सीमित रहना ही लोकहितैषी होगा. संप्रति ‘दलबदल’ की बहार है. पत्रकार मित्र दल बदलने वाले के पुराने वक्तव्य उद्धृत करते हैं, और नये दल में आने के बाद दिए गए बयानों से तुलना करते हैं. ऐसे विवेचन पढ़ने में वाकई बड़ा मजा आता है. दल छोड़ने वाले सभी मित्रों का बयान प्राय: एक समान होता है. मसलन, दम घुट रहा था, पीड़ा थी, टिकट वितरण में धांधली थी, आदि आदि.

‘दलबदल’ को सामान्यतया अच्छा नहीं माना जाता. ऐसे राजनेता को ‘दलबदलू’ कहा जाता है. क्या दलबदल वाकई गलत है? विचारधारा का प्रचार, प्रसार करने वाले राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए निश्चित ही ऐसा निर्णय कठिन होता है. शेक्सपियर के नाटक का एक मुख्य पात्र राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाता है. विपरीत परिस्थितियों में वह पाला बदलता है. उसके समर्थक उसके पुराने विचार व वक्तव्य याद कराते हैं. वह तनावग्रस्त होता है. द्वंद्वग्रस्त होता है. करे तो क्या करे? परिस्थितियों के कारण ही पालाबदल हुआ. शेक्सपियर ऐसी गहन पीड़ा को प्रकट करने के विशेषज्ञ हैं. चुनाव मौसम में विचारनिष्ठा, सिद्धांत, ध्येय आदि बातें धरी रह जाती हैं. चुनावी जीत ही तब असली उद्देश्य रहता है. चुनाव ऋतु में सभी दल ‘इनकमिंग फ्री’ कर देते हैं.

महानगरों में अव्यवस्था व रोडजाम से बचने के लिए कुछ मार्गों पर ‘वनवे ट्रैफिक’ चलाए जाते हैं. आप आ सकते हैं, लेकिन उसी मार्ग से लौट नहीं सकते. चुनावी मौसम में दल चाहते हैं कि इनकमिंग जारी रहे, बढ़े, लोग आएं, लेकिन अल्पकालिक राजनीति के दौर में ‘आया-गया’ साथ-साथ चलते हैं. जनतंत्र को आदर्श राज व्यवस्था माना जाता है. इसे पुष्ट करने के लिए ही प्रभावी लोकमत बनाए जाते हैं. देश संवैधानिक संस्थाओं से चलते हैं. इन पर विराजमान लोग आदर पाते हैं. उनके साध्य-साधन अनुचित होते हैं, तो संस्थाएं नहीं फूलतीं-फलतीं.

जनतंत्र का संचालन दलतंत्र करता है. यहां दलतंत्र संचालन की आचार संहिता नहीं है. यहां कई दलों में आजीवन राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. दलबदल बुरा है, तो इसे संसद और विधानमंडल के बाहर दलतंत्र में भी लागू करना चाहिए. दलबदल बुरा नहीं हैं, तो दलबदल के आधार पर सांसद, विधायक की निर्हता के कानून का क्या अर्थ है? जो गलत है, वह हर समय गलत है और जो सही है, वह सदन में भी सही है, और बाहर भी सही.



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